गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 20.स्वभाव और स्वधर्म
गीता का उपदेश यह है कि हमें अपने कर्म से, स्वकर्मणा, भगवान् की पूजा करनी चाहिये; हमें अपनी सत्ता और प्रकृति के स्वधर्म के द्वारा निर्धारित कर्मों को भगवान् की भेंट चढ़ाना चाहिये। क्योंकि सृष्टि की समस्त गति तथा कर्म की समस्त प्रवृत्ति भगवान् से ही उत्पन्न होती है और उन्हीं के यह संपूर्ण जगत् विस्तारित किया है और लोकसंग्रह के लिये, लोकों को संगठित रखने के लिये, वे स्वभाव के द्वारा समस्त कर्म का परिचालन और गठन करते हैं। अपने आंतर और बाह्य कर्मों से उनकी पूजा करने, अपने संपूर्ण जीवन को परमोच्च देव के प्रति एक कर्म-यज्ञ बना देने का अर्थ है अपने समस्त संकल्प सत्ता और प्रकति में उनके साथ एक होने के लिये अपने-आपको तैयार करना। हमारा कर्म हमारे अंतरस्थित सत्य के अनुसार होना चाहिये; उसे अपने को बाह्य एवं कृत्रिम मानदंडों के अनुकूल नहीं बनाना चाहियेः उसे अंतरात्मा तथा उसकी सहजात शक्तियों की एक जीवंत और सच्ची अभिव्यक्ति होना होगा। क्योंकि अपनी वर्तमान प्रकृति में इस अंतरात्मा के जीवंत अंतरतम सत्य का अनुसरण करने से, अंततः अद्यावधि-अतिचेतन परम प्रकृति के अंदर अंतरात्मा के अमर सत्य पर पहुँचने में हमें सहायता प्राप्त होगी। वहाँ हम परमेश्वर,अपनी सच्ची आत्मा और सर्वभूतों के साथ एकत्व में निवास कर सकते हैं और सिद्धि लाभ कर अमर धर्म के स्वातंत्र्य में दिव्य कर्म के निर्दोष यंत्र बन सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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