गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 15.तीन पुरुष
क्षर आत्मा, जो हमें समस्त प्राकृत सत्ता तथा सर्वभूत के रूप से गति और क्रिया करती है। आत्मा की यह गतिशील शक्ति आत्मा की उस मूल स्थिरता के अंदर जड़ प्रकृति के दूसरे तत्त्व वायु के रूप में, संयोजन और वियोजन तथा आकर्षण और विकर्षण की स्पर्श-गुणरूपी ऊर्जा के साथ कार्य करती है, तैजस[1] तथा अन्य पांच भौतिक तत्त्वों की रचना-शक्ति को आश्रय देती है, आकाश की सूक्ष्म-विशाल स्थिरता में व्यापक रूप से वितत है। यह अक्षर है आत्मा जो कि बुद्धि से उच्चतर है-यह हमारी सत्ता के अंदर प्रकृति के उस उच्चतम आभ्यंतरिक तत्त्व, अर्थात मोक्षप्रद बुद्धितत्त्व से भी परे है जिसके द्वारा मनुष्य अपने अस्थिर और चिर-चंचल मनोतय पुरुष से परे अपने शांत और नित्य आत्मतत्त्व की ओर लौटता हुआ आवागमन से तथा सुदीर्घ कर्म श्रृंखला से अंततः छुटकारा प्राप्त करता है। अपनी उच्चतम अवस्था, में यह आत्मा आद्या विश्व-प्रकृति के अव्यक्त तत्त्व से भी परतर, अव्यक्त है और यदि जीव इस अक्षर तत्त्व की ओर मुड़ जाये तो जगत और प्रकृति का प्रभुत्व उस पर से हट जाता है और वह जन्म से परे अपरिवर्तनशील नित्य जीवन में जा पहुँचता है। इस प्रकार ये दोनों-क्षर और अक्षर-ही दो पुरुष हैं जिन्हें हम इस जगत में देखते हैं; एक तो इसके कर्म में सामने की ओर प्रकट होता है, दूसरा पीछे की ओर उस शाश्वत शांति में दृढ़ रूप से अवस्थित रहता है जिसे कर्म निःसृत होता है और जिसमें सब कर्म कालातीत सत्ता के अंदर निरुद्ध और विलीन हो जाते हैं, अर्थात निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विकिरणशील, वाष्पीय और वैद्युत
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