गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 15.तीन पुरुष
परमेश्वर अपने ही सकल-सृष्टिकारी योग की माया के द्वारा छिपे हुए हैं, वे ‘नित्य’ अनित्य के रूप में मूर्तिमंत हैं, वे सत्स्वरूप अपने ही अभिव्यक्तिकारी दृश्य-प्रपंच के अंदर लीन तथा उसके द्वारा आच्छादित हैं। यदि क्षर पुरुष को अकेले, अपने स्वतंत्र रूप में लिया जाये, अविभक्त, अक्षर तथा परात्पर पुरुष से पृथक विश्वगत, क्षर पुरुष के रूप में देखा जाये तो इसमें हमारे ज्ञान तथा सत्ता की पूर्णता नहीं है और अतएव इसमें मुक्ति भी कहाँ ! परंतु एक और आत्म-सत्ता भी है जिसका हमें बोध प्राप्त होता है पर जो इन चीजों में से कोई भी नहीं बल्कि आत्मा है और केवल आत्मा ही है। यह आत्मा सनातन है, सदा एक रस है, अभिव्यक्ति के द्वारा कभी परिवर्तित या प्रभावित नहीं होती, एक ओर स्थिर है यह स्वयंभू सत्ता है जो विभक्त नहीं है और यहाँ तक कि प्रकृति के अंदर पदाथों और शक्तियों के विभाग से आपाततः भी विभाजित नहीं होती, प्रकृति के कर्म में वह निष्क्रिय रहती है तथा उसकी गति में निश्चल। यह सबकी आत्मा है और फिर भी अविचल, तटस्थ और अगोचर, मानों इस पर निर्भर करने वाली ये सब चीजें अनात्मा हों, इसके अपने ही फल, शक्त्यंश और परिणाम न हों बल्कि एक दृश्य नाटक हों जो कि भाग न लेने वाले अविचल द्रष्टा की आंख के सामने खेला जा रहा है। क्योंकि, इस नाटक में रंगमंच पर प्रकट होने तथा भाग लेने वाला मन तो उस आत्मा से भिन्न वस्तु है जो उदासीन भाव से कर्म को अपने अंदर धारण करती है। यह आत्मा कालातीत है, यद्यपि इसे काल के अंदर देखते हैं; में परिव्याप्त नहीं यद्यपि हम इसे यूं देखते हैं मानों यह देश को व्याप्त किये हुए हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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