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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
13.क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ
जगद्वयापरमय यह सब स्थूल प्रपंच एक ही सनातन के अंदर प्राकृत सत्ताओं का नानाविध भूतभाव हैं, सब कुछ को विश्व-शक्ति ने उस पुरुष की सत्ता के अंदर बद्धमूल अपने ‘विचार’ (Idea) के बीजों से ही विस्तारित, अभिव्यक्त तथा अनावृत किया है; पंरतु आत्मा हमारी इस देह में उसके व्यापारों का अंगीकार और उपभोग करते हुए भी उसकी मर्त्यता से प्रभावति नहीं होगी, क्योंकि वह जन्म-मरण से अनाद्यनन्त है, वह उन व्यक्तित्वों से सीमाबद्ध नहीं होती जिन्हें वह प्रकृति के अंदर नाना रूप से ग्रहण करती हैं, क्योंकि वह इन सब व्यक्तित्वों की एक ही परम आत्मा है, त्रिगुण के विकारों से परिवर्तित नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं गुणों से निर्धारित नहीं होती, कर्म करते हुए भी कर्म नहीं करती, क्योंकि वह प्रकृति के कर्मों को धारण तो करती है पर उसके फलों से आध्यात्मिक तौर पर पूर्णतया मुक्त रहती है, वह समस्त कर्मों का मूल तो है, पर अपनी प्रकृति की क्रीड़ा से किसी प्रकार भी परिवर्तित या प्रभावित नहीं होती। जिस प्रकार सर्वव्यापी आकाश जिन अनेक रूपों को ग्रहण करता है उनसे प्रभावित या परिवर्तित नहीं होता, बल्कि सदा एकरस, शुद्ध, सूक्ष्म मूलतत्त्व ही बना रहता है, उसी प्रकार यह आत्मा सब संभव कार्यों को कर चुकने तथा सभी संभवनीय वस्तुएं बन चुकने पर भी-उन सबमें से होकर भी-वही शुद्ध, निर्विकार, सूक्ष्म, अनंत मूलतत्त्व बनी रहती है। यह आत्मा की परिस्थिति है, परा गतिः है, यह ईश्वरीय भाव और प्रकृति है, मद्भाव है; जो कोई भी आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है वह सनातन के उसी अमृतत्त्व में उठ जाता है।
ये ब्रह्म, अपने प्राकृत भूतभाव के क्षेत्र के ये सनातन और आध्यात्मिक ज्ञाता, यह प्रकृति, उनकी साश्वत शक्ति हो अपने को क्षेत्र के रूप में परिणत करती है, मर्त्य प्रकृति में आत्मा की यह अमरता-ये सब एक साथ मिलकर हमारी सत्ता के संपूर्ण सत्य हैं जब हम अपनी अंतरस्थ आत्मा की ओर मुड़ते हैं तो वह प्रकृति के संपूर्ण क्षेत्र को रश्मियों की पूर्ण प्रभा से समन्वित अपने निज सत्य से प्रकाशमान कर देती है। उस ज्ञान-सूर्य के प्रकाश में हमारे अंदर ज्ञाननेत्र खुल जाता है। और तब हम इस अज्ञान में नहीं, बल्कि उस सत्य में निवास करने लगते हैं। तब हम देखते हैं कि हमारा अपनी वर्तमान मानसिक और भौतिक प्रकृति की सीमा में बंधे रहना एक अंधकारमय भ्रांति थी, तब हम अपरा प्रकृति के नियम, अर्थात् मन और देह के नियम से मुक्त हो जाते हैं, तब हम आत्मा की पराप्रकृति को प्राप्त कर लेते हैं। वह अति भव्य और उच्च परिवर्तन ही, मर्त्य प्रकृति को उतार फेंकना तथा अमृत सत्ता को अपना लेना ही चरम, दिव्य और अनंत संभूति है।
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