गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
13.क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ
ज्ञान हमें आत्मा के प्रकृति की मर्त्यता के साथ होने वाले क्षर व्यवहारों से बहुत ऊपर अवस्थित हमारी परमोच्च आत्मा को इस रूप में दिखला देता है कि वे प्रकृति के कर्मों के महेश्वर हैं जो सब पदार्थों और प्राणियों में एक और सम है कि प्रकृति के कर्मों के महेश्वर हैं जो सब पदार्थों और प्राणियों में एक और सम हैं, न देह के ग्रहण के समय जन्म लेते हैं और न ही इन सब देहों के विनाश के समय मृत्यु के वशीभूत होते हैं। यही है सच्चा देखना, अपने अंदर ही उस सत्ता को देखना जो सनातन और अमृत हैं जैसे-जैसे हम सब वस्तुओं में इस सम आत्मा को अधिकाधिक अनुभव करते हैं, वैसे-वैसे हम आत्म की उसी समता में प्रवेश करते जाते हैं; जैसे-जैसे हम इन विश्वमय पुरुष में अधिकाधिक निवास करने लगते हैं, वैसे-वैसे हम स्वयं भी विश्वमय पुरुष बनते जाते हैं; जैसे-जैसे हम इन सनातन से उत्तरोत्तर संज्ञान होते जाते हैं, वैसे-वैसे हम अपनी सनातनता को धारण करते जाते हैं और सनातन ही बन जाते हैं। हम तब अपने मानसिक तथा भौतिक अज्ञान की सीमा और दुर्दशा के साथ तदाकार न रहकर आत्मा की नित्यता के साथ तदाकार हो जाते हैं तब हम देखते हैं कि हमारे सब कर्म प्रकृति का ही विकास एवं व्यापार हैं और हमारी असली आत्मा कार्यवाहक कर्ता नहीं, बल्कि कार्य की स्वतंत्र साक्षी, महेश्वर तथा अलिप्त भोक्ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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