गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
10.विश्वरूपदर्शन
इस प्रकार इस विश्वरूपदर्शन का मूल स्वर तथा प्रधान मर्म यही है यह बहु में एक तथा एक में बहु का दर्शन है,-सब वस्तुएं वह ‘एक’ ही है। यही दर्शन उस सबको जो है और होगा, दिव्य योग के चक्षु के सामने उन्मुक्त कर देता है और उसका समर्थन तथा व्याख्या करता है। एक बार इसके प्राप्त हो जाने तथा इसे धारण कर लेने पर यह भागवत ज्योति के खड्ग से सब संशयों तथा व्यामोहों की जड़ काट डालता है और सब निषेधों तथा विरोधों का उन्मूलन कर देता है। यही वह दर्शन है जो वस्तुओं में समन्वय और एकत्व स्थापित करता है। यदि जीव इस दर्शन में परमात्मा के साथ एकत्व प्राप्त कर सके तो, इस संसार में जो कुछ भी भीषण है वह सब भी उसके लिये त्रासकारी नहीं रह जायेगा। अर्जुन अभीतक इसे नहीं प्राप्त कर सका है,इसलिये हम देखते हैं कि दर्शन करने पर वह भयभीत होता है। तब हम देखेंगें कि वह भी परेमेश्वर का ही एक रूप है और एक बार जब हम, उसे केवल अपने-आपमें ही न देखते हुए, उसके अंदर उनके प्रयोजन को ढूंढ़ लेंगे, तब हम संपूर्ण जगत को सर्वालिंगी हर्ष तथा प्रबल उत्साह के साथ अंगीकार कर सकेंगे, अने नियत कर्म की ओर सुनिश्चित पगों से अग्रसर हो सकेंगे और उसे परे परमोच्च परिणति को अपनी दृष्टि में ला सकेगें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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