गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
10.विश्वरूपदर्शन
अर्जुन उन देवाधिदेव के, उन ऐश्वर्यमय, शोभन तथा भीषण परमेश्वर के, जीवों के प्रभु उन परमात्मा के दर्शन करता है जिन्होंने अपनी आत्मसत्ता की गरिमा-महिमा के अंदर इस उग्र एवं भयावह और व्यवस्थित, अद्भुत एवं मधुर तथा भीषण जगत को व्यक्त किया है, और हर्ष, भय तथा विस्मय से आविष्ट होकर वह उस विकराल विश्वरूप के आगे शीश नवाता है तथा हाथ जोड़कर संभ्रमपूर्ण वचनों के साथ उसकी पूजा करता है। वह कहता है, ‘‘हे देव, आपकी देह में मैं सब देवों, विभिन्न भूतसंघों, कमलासनस्थ सत्रष्टा देव ब्रह्या, तथा ऋषियों की ओर दिव्य सर्पों की जाति को देखता हूँ। हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप, मैं असंख्य भुजाएं, उदर, नेत्र और मुख देखता हूं, मैं सब ओर आपके अनंत रूप देखता हूं, पर न तो मैं आपका अंत देखता हूँ और न ही मध्य और न आदि, मैं आपको मुकुटमाली, गदाचक्रधारी, तथा दुर्निरीक्ष्य देखता हूँ क्योंकि आप मेरे चारों ओर दीप्तिमान् तेज की राशि हैं, सब ओर व्याप्त प्रभा हैं, जाज्वल्यमान सूर्य तथा दीप्त अनल के समान द्युतिमान् अप्रमेय है। आप जानने योग्य परम अक्षर हैं, अप इस विश्व के परम आधार और निलय हैं, आप शाश्वत धर्मो के अविनाशी रक्षक हैं, आप जगत के सनातन आत्मा, सनातन पुरुष हैं।’’[1]पर इस दर्शन की महानता में संहारकर्ता का भीषण रूप भी सम्मिलित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.15-18
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