गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
9.विभूति और सिद्धांत
अपनी अनंतता के ही कारण, उस अनंतता की पूर्ण सवतंत्रता के कारण वे लोकों की किसी भी योजना या विश्वप्रकृति के किसी भी विस्तार में परिपूर्ण रूप से रूपायित हो जाने की समस्त संभावना से परे है, भले ही यह या प्रत्येक भुवन हमें कैसा भी विशाल, जटिल, अनंततः विविध क्यों न मालूम पड़े नास्ति अन्तो विस्तरस्य में भले ही हमारी सांत दृष्टि को वह कितना ही अनंत क्यों न दीख पड़े। अतएव विश्व से परे मुक्त आत्मा के चक्षु इन परम भगवान् को देखेंगे। इस विश्व को वह आकारातीत भगवान् से लिये गये एक आकार, निरपेक्ष सत्ता के अंदर एक शाश्वत गौण अवस्था के रूप में देखेंगे। प्रत्येक सापेक्ष और सांत सत्ता को वह दिव्य ‘निरपेक्ष’ और ‘अनंत’ के एक आकार के रूप में देखेगा, तथा सब सांतों से परे जाकर और प्रत्येक सांत के भीतर से होकर वह उस अनंत पर ही पहुँचेगा, प्रत्येक दृग्विषय, प्रकृतिगत जीव तथा सापेक्ष कर्म और प्रत्येक गुण तथा प्रत्येक घटना के परे सदा उसी को देखेगा; इनमें से प्रत्येक चीज को तथा उससे परे देखता हुआ वह भगवान् में ही उसका अध्यात्मिक अर्थ प्राप्त करेगा। ये चीजें उसके मन के लिये बौद्धिक प्रत्यय नहीं होंगी, न जगत् के प्रति यह भाव केवल विचारने का एक ढंग या एक व्यावहारिक सिद्धांत एवं बौद्धिक रचना होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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