गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
9.विभूति और सिद्धांत
सर्वप्रथम, उसे सत्ता की एकता का ज्ञान तथा उस ज्ञान की ऐक्य-दृष्टि प्राप्त होगी? वह अपने चारों और रहने वाले सब भूतों को एक ही दिव्य सत्ता की आत्मा में, आकृतियों और शक्तियों के रूपमें देखेगा। उसके बाद से वह और उसकी चेतना के सभी बाह्यांतर व्यापारों का आरंभ-बिंदु होगी; वही और उसकी मूल दृष्टि होगी, उसके समस्त कार्यों का आध्यात्मिक आधार होगी। वह सब वस्तुओं तथा सभी प्राणियों को एकतेव में निवास करते, चलते-फिरते तथा काम-काज करते और दिव्य एवं नित्य सत् में ही अवस्थित देखेगा। परंतु वह उस एकमेव को भी सबका अंतर्वासी, उनकी आत्मा, उनकी अंतःस्थ मूल अध्यात्मसत्ता अनुभव करेगा; वह देखेगा कि अपनी सचेतन प्रकृति के अंदर उस एकमेव की गुप्त उपस्थिति के बिना वे न तो जी सकते थे और न किसी प्रकार की गति-चेष्टा या कार्य-व्यापार ही कर सकते थे और उसके संकल्प, शक्ति, अनुमति या मौन स्वीकृति के बिना किसी भी क्षण उनकी एक भी चेष्टा संभव न होती। स्वयं उन्हें भी, उनकी आत्मा, मन, प्राण और भौतिक ढांचे को भी, वह इस एक आत्मा और अध्यात्म-सत्ता की शक्ति, संकल्प सामर्थ्य के परिणाम-मात्र देखेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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