गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर
यह सारा क्षरभाव अर्थात् ‘अधिभूत’ प्रकृति की शक्तियों के सम्मिलन से निकल पड़ता है, यह अधिभूत ही जगत् है और जीव की चेतना का विषय है। इस सबमें जीव ही प्रकृतिस्थ भोक्ता और साक्षिभूत देवता है; बुद्धि, मन और इन्द्रियों की जो दिव्य शक्तियां हैं जीव की चेतन सत्ता की जो शक्तियां हैं जिनके द्वारा यह प्रकति की क्रिया को प्रतिबिंबित करता है, इसके ‘अधिदैव’ अर्थात् अधिष्ठातृदेवता हैं। यह प्रकृतिस्थ जीव ही इस तरह क्षर पुरुष है, भगवान् का नित्य कर्म-स्वरूप; यही जीव प्रकृति से लौटकर जब ब्रह्म में आ जाता है तब अक्षर पुरुष होता है, भगवान् का नित्य नैष्कर्म्य-स्वरूप। पर क्षर पुरुष के रूप और शरीर में परम पुरुष भगवान् ही निवास करते हैं। अक्षरभाव की अचल शांति और क्षरभाव के कर्म का आनंद दोनों ही भाव एक साथ अपने अंदर रखते हुए भगवान् पुरुषोत्तम मनुष्य के अंदर निवास करते हैं। वे हमसे दूर किसी परतर, परात्पर पद पर ही प्रतिष्ठित नहीं हैं, बल्कि यहाँ प्रत्येक प्राणी के शरीर में, मनुष्य के हृदय में और प्रकृति में भी मौजूद हैं। वहाँ वे प्रकृति के कर्मों को यज्ञरूप से ग्रहण करते और मानव जीव के सचेत होकर आत्मार्पण करने की प्रतीक्षा करते हैं; परंतु हर हालत में, मनुष्य की अज्ञानावस्था और अहंकारिता में भी वे ही उसके स्वभाव के अधीश्वर और उसके सब कर्मों के प्रभु होते हैं, प्रकृति और कर्म का सारा विधान उन्हींकी अध्यक्षता में होता है। उन्हींसे निकलकर जीव प्रकृति की इस क्षर-क्रीड़ा में आया है और अक्षर आत्मसत्ता से होता हुआ उन्हींके परम धाम को प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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