गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर
क्योंकि, यहाँ विसर्ग का जो क्रम है उसके संबंध में ही गीता ने अपना अभिप्राय सूचित किया है। इस क्रम में सर्वप्रथम ब्रह्म अर्थात् परम, अक्षर, स्वतःसिद्ध आत्मभाव है; देशाकाल-निमित्त में होने वाले विश्वप्रकृति के खेल के पीछे सर्वभूत यही ब्रह्म है। उस आत्मसत्ता से ही देश, काल और निमित्त की सत्ता है और उस परिवर्तनीय सर्वस्थित परंतु फिर भी अविभाज्य आश्रम के बिना देश, काल, निमित्त अपने विभाग, परिणाम और मान निर्माण करने में प्रवृत्त नहीं हो सकते। परंतु अक्षर ब्रह्म स्वतः कुछ नहीं करता, किसी कार्य का कारण नहीं होता, किसी बात का विधान नहीं करता; वह निष्पक्ष, सम और सर्वाश्रय है ; वह चुनता या आरंभ नहीं करता। तब यह संकल्प करने वाला, विध-विधान करने वाला कौंन है, परम की दिव्य प्रेरणा देने वाला कौंन है?कर्म का नियामक कौंन है और कौंन है जो सनातन सद्वस्तु से काल के अंदर इस विश्वलीला को प्रकट करता है? यह ‘स्वभाव’ रूप से प्रकृति है। परम, परमेश्वर, पुरुषोत्तम वहाँ उपस्थित हैं और वे ही अपनी सनातन अक्षर सत्ता के आधार पर अपनी परा आत्मशक्ति के कार्य को धारण करते हैं वे अपनी भागवती सत्ता चैतन्य, संकल्प या शक्ति को प्रकट करते हैं- ययेदं धार्यते जगत, वही परा प्रकृति है। इस परा प्रकृति में आत्मा का स्वबोध आत्मज्ञान के प्रकाश में गतिशील भाव को, वह जिस चीज को अपनी सत्ता में अलग करता और अपने स्वभाव में अभिव्यक्त करता है, उसके प्रकृत सत्य को, जीव के आध्यात्मिक स्वभाव को देखता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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