गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 269

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2. भक्ति -ज्ञान -समन्वय


फिर, जहाँ ज्ञान नहीं वहाँ भक्त वासुदेवः सर्वमिति इस समग्र सर्वव्यापी सत्य को जानकर भगवान् की ओर नहीं जाता, बल्कि भगवान् के ऐसे अधूरे नाम और रूप गढ़ता है जो उसकी अपनी ही आवश्यकता, मनोदशा और प्रकृति के प्रतीक मात्र होते हैं और उन्हें वह इसलिये पूजता है कि ये उसकी प्राकृत लालसाओं में सहायक हों या उन लालसाओं को पूर्ण करें वह इस भगवान् के इन्द्र, अग्नि, विष्णु, शिव, देवभूत ईसा या बुद्ध आदि नाम-रूप गढ़ा करता है अथवा यह कल्पना किया करता है कि भगवान् प्राकृत गुणों का कोई समुच्चय अथवा कोई दयामय और प्रेममय ईश्वर या कोई सत्यपरायण और न्यायकारी अति कठोर देवता या क्रुद्ध, भयानक और दण्डधर कालानल-स्वरूप महादेव या इनमें से कुछ गुणों के समुच्चय-स्वरूप कोई परमेश्वर हैं और वह बाहर में और मन तथा प्राण में उसीकी वेदी तैयार करता और उसे ही साष्टांग प्रणाम करता और उससे सांसारिक सुख और भोग देने के लिये या घावों को भरने के लिये या अपने भूलभरे कट्टर, बौद्धिक, असहिष्णु ज्ञान के सांप्रदायिक समर्थन जैसी चीजों की मांग करता है। यह सब एक हदतक सही हैं ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है जो यह जानता हो कि सर्वव्यापी वासुदेव ही यह सब कुछ है, वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:। मनुष्य नाना प्रकार की बाहरी इच्छाओं के वशीभूत होते हैं और ये इच्छाएं उनके अंतज्ञान की क्रिया हर लेती हैं, कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना:।

वे अज्ञानवश अन्य देवतओं की, अपनी इच्छा के अनुकूल भगवान् के अपूर्ण रूपों की शरण लेते हैं। वे अपनी संकीर्णतावश एक-न-एक विधि-नियम और आचार-विचार स्थापित कर लेते हैं जो उनकी प्रकृति की आवश्यकताओं को पूरा करता है, तं तं नियम्मास्थाय्। और, इस सब में उनका अपना अदमय वैयक्तिक निर्णय ही उन्हें चलाता है, वे अपनी प्रकृति की इस तंग आवश्यकता के पीछे ही चलते हैं और उसीको परम सत्य मान लेते हैं, क्योंकि अभीतक उनमें अनंत की व्यापकता को ग्रहण करने की क्षमता नहीं होती यदि उनका विश्वास पूर्ण हो तो, इन रूपों में भगवान् उन्हें उनके इष्ट भोग अवश्य प्रदान करते हैं, परंतु ये भोग क्षणिक होते हैं और केवल क्षुद्र बुद्धि और अविवेकवश ही लोग इन भोगों का पीछा करना अपने धर्म और जीवन का सिद्धांत बना लेते हैं। और, इस तरह से जो कुछ भी आध्यात्मिक लाभ होता है वह देवताओं की ओर ले जानेवाला होता है; वे केवल क्षर प्रकृति के नाना-विध रूपों में स्थित भगवान् को ही अनुभव कर पाते हैं जो कर्म-फल देने वाले होते हैं पर जो प्रकृति से अतीत समग्र भगवान् को पूजते हैं वे यह सब भी ग्रहण करते और इसे दिव्य बना लेते हैं, देवताओं को उनके परम स्वरूप तक, प्रकृति को उसके शिखर तक चढ़ा ले जाते हैं और उनके परे परमेश्वर तक जा पहुँचते हैं, परम पुरुष भगवान् का साक्षत्कार करते और उन्हें प्राप्त होते हैं, देवान्‌ देवयजो यांति मद्भक्ता यांति मामपि[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7.23

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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