गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द1. दो प्रकृतियां
अतः त्रिगुणमयी प्रकृति के इस चक्कर से परे उस एक अक्षर पुरुष और शांत ब्रह्म की ओर ऊपर उठकर समाधान ढ़ूढना होगा, क्योंकि तभी कोई अहंकार और इच्छा-चलित कर्म से जो कि कठिनाई की सारी जड़ है, ऊपर उठ सकता है। परंतु केवल इतने से तो अकर्म की ही प्राप्ति होती है, क्योंकि प्रकृति के परे कर्म का कोई कारण नहीं, न कर्म का कोई कारण या निर्धारण ही है- अक्षर पुरुष तो अकर्मशील है, सब पदार्थों, कार्यों और घटनाओं में तटस्थ और सम है। इसलिये यहाँ योगशास्त्र में प्रतिपादित ईश्वर का यह भाव लाया गया है कि ईश्वर कर्मों और यज्ञों के भोक्ता प्रभु हैं, और यहाँ इसका संकेत मात्र क्रिया है, यह स्पष्ट नहीं कहा गया है कि ये ईश्वर अक्षर ब्रह्म के भी परे हैं और इन्हीं में विश्व-लीला का गंभीर रहस्य निहित है। इसलिये अक्षर पुरुष से होकर इनकी ओर ऊपर बढ़ने से हम अपने कर्मों से आध्यात्मिक मुक्ति भी पा सकते हैं और साथी ही प्रकृति के कर्मों में भी भाग लेते रह सकते हैं। पर अभी यह नहीं बताया गया कि ये परम पुरुष जो यहाँ भगवान् गुरु और कर्म-रथ के सारथी-रूप में अवतरित हैं, कौंन हैं और अक्षर पुरुष तथा प्रकृतिस्थ व्यष्टि के साथ इनके क्या संबंध हैं। न यह बात ही अभी स्पष्ट हुई है कि किस भगवान् से आने वाली कर्म-प्रेरणा या संकल्प त्रिगुणात्मिका प्रकृति की ही इच्छा नहीं हो सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज