गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द3.मानव-शिष्य
अर्जुन से जिस योग को अपनाने को कहा जा रहा है उसका स्वरूप जब वह पूरे तौर पर समझ लेता है तो उसका फलवादी स्वभाव जो मन के संकल्प, पसंद और इच्छा से ही कर्म में प्रवृत्त होना जानता है, इस योग को बहुत कठिन जानकर शंकित हो उठता है। अर्जुन पूछता है कि उस पुरुष की क्या गति होती है जो इस योग की साधना करता तो है पर योग सिद्धि को नहीं प्राप्त होता, क्या वह मानव कर्म, विचार और भाव वाले इस जीवन को जिसे योग के लिये वह आगे बढ़ा था, दोनों को ही तो नहीं खो बैठता और इस प्रकार दोनों और से भ्रष्ट होकर छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता? जब उसकी शंकाओं का समाधान हो गया और सब उलझनें सुलझ गयीं और उसने जाना कि भगवान् को ही उसे अपना धर्म-कर्म मानना होगा, तब भी वह बार-बार उसी सुस्पष्ट और सुनिश्चित ज्ञान के लिये आग्रह करता है, जो उसे इस मूल तक, इस भावी कर्म विधान तक हाथ पकड़कर पहुँचा दे। सत्ता जिन विधि अवस्थाओं में हम सामान्यतया रहते हैं, उनमें भगवान् को कैसे परखें? संसार में उनकी आत्म शक्ति की वे कौन-सी प्रधान अभिव्यक्तियां हैं जिनको वह ध्यान द्वारा पहचान सकता है और अनुभव कर सकता है? क्या अर्जुन इस क्षण में भी उनके भागवत विश्वरूप को नहीं देख सकता जो मानव मन, बुद्धि और शरीर की आड़ में रहकर उससे वास्तव में बात कर रहा है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज