गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 24

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

3.मानव-शिष्य


जब उससे कहा जाता है कि आत्म स्थिति प्राप्त होने पर यह जरूरी नहीं है कि कर्म का बाह्म रूप भी बदल जाये, कर्म सदा स्वभाव के अनुसार ही करना होगा, चाहे वह कर्म दूसरे की तुलना में सदोष और त्रुटि पूर्ण क्यों न प्रतीत हो, तब इस बात से उसका चित्त घबरा उठता है। स्वभाव के अनुसार कर्म करना होगा ।! किंतु, अर्जुन का जो मुख्य विषय है अर्थात् इस कर्म को करने से पाप की ही जो आशंका होती है उसका क्या हुआ? क्या यह स्वभाव के कारण ही नहीं है कि मनुष्य मानो विवश होकर, अपनी मर्जी के ख़िलाफ़ भी पाप और अपराध करते हैं? इसी प्रकार जब श्रीकृष्ण आगे चलकर कहते हैं कि मैंने ही पुराकाल में यह योग विवस्वान् को बतलाया था, जो काल पाकर नष्ट हुआ और वही आज मैं तुम्हें फिर बता रहा हूं, तब भी अर्जुन की व्यावहारिक बुद्धि चकरा गयी और उसने जब खुलासा पूछा तो श्रीकृष्ण ने अवतार-तत्त्व और उसके सांसारिक प्रयोजन के संबंध में वे प्रसिद्ध वचन कहे, जिनका जहाँ-तहाँ पुनः-पुनः स्मरण किया जाता है। अर्जुन फिर श्रीकृष्ण के शब्दों से घबराकर जाता है जब श्रीकृष्ण कर्म और कर्म-संन्यास दोनों का समन्वय करते हैं और वह फिर वही बात कहता है कि एक ही बात निश्चित रूप से बताइये, यह “व्यामिश्र“ वाक्य नहीं।

अर्जुन से जिस योग को अपनाने को कहा जा रहा है उसका स्वरूप जब वह पूरे तौर पर समझ लेता है तो उसका फलवादी स्वभाव जो मन के संकल्प, पसंद और इच्छा से ही कर्म में प्रवृत्त होना जानता है, इस योग को बहुत कठिन जानकर शंकित हो उठता है। अर्जुन पूछता है कि उस पुरुष की क्या गति होती है जो इस योग की साधना करता तो है पर योग सिद्धि को नहीं प्राप्त होता, क्या वह मानव कर्म, विचार और भाव वाले इस जीवन को जिसे योग के लिये वह आगे बढ़ा था, दोनों को ही तो नहीं खो बैठता और इस प्रकार दोनों और से भ्रष्ट होकर छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता? जब उसकी शंकाओं का समाधान हो गया और सब उलझनें सुलझ गयीं और उसने जाना कि भगवान् को ही उसे अपना धर्म-कर्म मानना होगा, तब भी वह बार-बार उसी सुस्पष्ट और सुनिश्चित ज्ञान के लिये आग्रह करता है, जो उसे इस मूल तक, इस भावी कर्म विधान तक हाथ पकड़कर पहुँचा दे। सत्ता जिन विधि अवस्थाओं में हम सामान्यतया रहते हैं, उनमें भगवान् को कैसे परखें? संसार में उनकी आत्म शक्ति की वे कौन-सी प्रधान अभिव्यक्तियां हैं जिनको वह ध्यान द्वारा पहचान सकता है और अनुभव कर सकता है? क्या अर्जुन इस क्षण में भी उनके भागवत विश्वरूप को नहीं देख सकता जो मानव मन, बुद्धि और शरीर की आड़ में रहकर उससे वास्तव में बात कर रहा है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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