गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द3.मानव-शिष्य
वे उसे अहंकार से निकालकर आत्मा में ले जाना चाहते हैं, मन-बुद्धि, प्राण और शरीर के जीवन से निकलकर मन-बुद्धि के परे की उस प्रकृति में ले जाना चाहते हैं जो भागवत स्थिति है। इसके साथ ही भगवान् को उसे वह चीज भी देनी है जो वह मांग रहा है और जिसे मांगने और ढूंढने की प्रेरणा उसे अपनी अंतःस्थित सत्ता के निर्देश द्वारा मिल रही है, अर्थात् इस जीवन और कर्म के लिये एक नवीन धर्म देना है जो इस अपर्याप्त सामान्य मनुष्य-जीवन के परस्पर-विग्रह, विरोध, उलझन और भ्रामक निश्चयों से परिपूर्ण विधान से बहुत ऊपर की चीज है, वह परम धर्म जिससे जीव कर्म-बंध से मुक्त होता है और फिर भी अपने भागवत स्वरूप की विशाल मुक्त स्थिति में कर्म करने और विजय संपादन करने की शक्ति से युक्त होता है। क्योंकि कर्म तो करना ही होगा, जगत् का अपने काल चक्र पूरे करने ही होंगे और मनुष्य की आत्मा को उस नियत कर्म की ओर से अज्ञानवश अपनी पीठ नहीं मोड़नी चाहिये जिसके लिये वह वहाँ आयी है। गीता की शिक्षा का संपूर्ण क्रम, उसकी व्यापक-से-व्यापक परिक्रमा में भी, इन्हीं तीन उद्देश्यों की पूर्ति के निमित्त है और उधर ही ले जाने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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