गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द21.प्रकृति का नियतिवाद
इस स्वधर्म का वास्तविक अर्थ जानने के लिये हमें तब तक ठहरना होगा जब तक गीता के पिछले अध्यायों में किये गये पुरुष, प्रकृति और गुणों के विस्तृत विवेचन तक न पहुँच जायें, किंतु निश्चय ही इसका यह अर्थ तो नहीं है कि जिसे हम प्रकृति कहते हैं उसकी जो कोई भी प्रेरणा हो, चाहे वह अशुभ ही क्यों न हो, उसका पालन करना होगा। कारण इन दो श्लोकों के बीच में गीता ने यह आदेश भी तो दिया है कि, ‘‘प्रत्येक इन्द्रिय के विषय के अदंर रागद्वेष छिपे हुए हैं, उनके वश में न आना, क्योंकि ये आत्मा के रास्ते में लुटेरे हैं।[4]और इसके बाद ही जब अर्जुन यह प्रश्न करता है कि प्रकृति का अनुसरण करने में जब कोई दोष नहीं है तो अपने अंदर की उस चीज को क्या कहें जो मनुष्य से, उसकी इच्छा और प्रयत्न के विरुद्ध, मानो बरबस पाप कराती है, तब भगवान् गुरु उत्तर देते हैं कि कामना और उसका साथी क्रोध-द्वितीय गुण, रजोगुण की संतान-ऐसा कराते हैं; और यह कामना आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु है, इसे मार ही डालना होगा। गीता कहती है, पापकर्म का त्याग मुक्ति की पहली शर्त है और सर्वत्र गीता का यह आदेश है कि आत्मवशी और आत्मसंयमी बनो तथा मन, इन्द्रिय और संपूर्ण निम्न सत्ता को अपने वश में रखो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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