गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द20.समत्व और ज्ञान
गीता की मुक्ति मुक्त पुरुष की सच्ची मुक्ति है, वह निम्न प्रकृति से निकलकर परा प्रकृति में जन्म लेने से प्राप्त मुक्ति है और वह अपनी दिव्यता में स्वतःस्थित रहती है। ऐसा मुक्त पुरुष जो कुछ करता है, चाहे जिस तरह रहता है, रहता है भगवान् में ही वह घर का लाड़ला लाल है, ‘बालवत्‘ है जिससे कोई भूल नहीं होती, जिसका कभी पतन नहीं होता, क्योंकि वह उन परम सिद्ध से, उन सर्वानन्दयम सर्वप्रेममय सर्वसौन्दर्यमय से भरा रहता है, वह जो कुछ करता है वह भी उन्हीं से परिपूर्ण होता है। जिस ‘राज्यं समृद्धं’ का वह उपभोग करता है वह वही मधुर सुखमय राज्य है जिसके विषय में यूनानी तत्त्ववेत्ता ने सारगर्भित शब्दों में कहा है ‘‘वह शिशु-राज्य है।” दार्शनिक का ज्ञान ऐहिक जीवन के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान है यानी जगत् के सब बाह्य पदार्थों की क्षणभंगुरता, जगत् के सारे भेद-प्रभेदों की निरर्थकता और आंतरिक स्थिरता, शांति, ज्योति और आत्म-निर्भरता की श्रेष्ठता का ज्ञान है। यह दार्शनिक उदासीनता से प्राप्त एक प्रकार की समता है; इससे एक बड़ी स्थिरता तो प्राप्त होती है, पर वह महान् आत्मानंद नहीं मिलता; यह संसार से अलग रहकर मिलने वाली मुक्तावस्था है, यह ज्ञान किसी पहाड़ की चोटी पर बैठे हुए अपनी महिमा में स्थित ल्यूक्रेशियन पुरुष का नीचे उस संसार-समुद्र की उद्दाम तरंगों से इधर-उधर झोंका खाने वाले दुःखी प्राणियों को दूर से देखना है जिसमें से वह स्वयं निकल आया है- यह भी संसार से अलग रहना और अंत में संसार के लिये व्यर्थ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रोमन समाज में जो क्रीतदास होते थे उनमें से किसी-किसी को उत्तम सेवा कार्य के पुरस्कार-स्वरूप मुक्त कर दिया जाता था, पर इस मुक्ति के बाद भी वह उस सत्ता के अधीन ही होता था जिसने उसको एक दिन गुलाम बना रखा था; इसे लिबर्ट्स कहते थे।
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