गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द19.समत्व
यह समता का सात्त्विक-तामस सिद्धांत है, इसमें इतनी समता नहीं है-यद्यपि यह सिद्धांत समता की ओर ले जाने वाला हो सकता है-जितनी उदासीनता या समान रूप से अस्वीकृति। वस्तुतः तामसी समता प्रकृति के जुगुप्सा-तत्त्व का फैलाव है। किसी विशेष कष्ट या यंत्रणा से जी हटता है, वही फैलकर प्रकृति के समस्त जीवन को दुःखमय और यंत्राणामय मानने लगता है और यह समझने लगता है कि यह सारा जीवन दुःख और आत्म-यंत्रणा की ओर प्रभावित हो रहा है, जीव जिस आनंद की इच्छा करता है उसकी ओर नहीं। केवल तामसिक समता में वास्तविक मुक्ति नहीं है; किंतु जैसा कि भारतीय यतियों ने किया, इसको यदि प्रकृति के परे अक्षर ब्रह्म की महत्तर स्थिति, सत्यतर शक्ति और उच्चतर आनंद के अनुभव द्वारा सात्त्विक बनाया जा सके तो आरंभ करने के लिये तामसिक समता भी शक्तिशाली साधन हो सकती है। पर इस प्रकार की गति स्वभावतः संन्यास, अर्थात् जीवन और कर्मों के त्याग की ओर ले जाती है न कि कामना के आंतर त्याग के साथ प्रकृति के जगत् की चिरकर्मण्यता के एकत्व की ओर, जो गीता का प्रतिपाद्य विषय है। फिर भी, गीता इस प्रवृत्ति को स्वीकार करती है, वह जन्म, रोग, मृत्यु, बुढ़ापा, दुःख आदि जागतिक जीवन के दोषों पर आधारित पीछे हटने की वृत्ति को भी स्थान देती है जहाँ से बुद्ध का ऐतिहासिक त्याग आरंभ हुआ था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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