गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द19.समत्व
परंतु अधिकारी जीवों में तामसी विरक्ति उनकी राजसिक आसक्ति तथा निम्नतर जीवन में तल्लीनता को नष्ट करके-जो उनके सत्त्वगुण के जागरण में बाधक होकर उनकी उच्चतर संभावना को राकती है-उपयोगी आध्यात्मिक हेतु सिद्ध कर सकती है। तब इस प्रकार अपनी बनायी हुई शून्यावस्था में आश्रय ढू़ढ़ते हुए वे भगवान् की इस पुकार को सुन पाते हैं कि “ हे जीव! तू जो अपने-आपको इस अनित्य असुखी जगत् में पाता है, मेरी ओर मुंह कर और मुझमें आनंद ले। फिर भी इस क्रिया में समता केवल इतनी है कि यह, जगत जिन-जिन चीजों से बना है उन सभी से समान भाव से भागती है और जगत् के प्रति उपेक्षा और अलगाव का भाव पैदा करती है, इससे यह शक्ति नहीं मिलती जिसके द्वारा हम जगत् के सुखद या दुःखद सब स्पर्शों को समभाव से बिना किसी राग-द्वेष के ग्रहण कर सकें, जो गीता की साधना का एक आवश्यक तत्त्व है। इसलिये यदि हम तामसिक निवृत्ति से ही आरंभ करें-यद्यपि यह बिलकुल आवश्यक नहीं है-तो भी इसकी उपयोग किसी महान् प्रयास में प्रवृत्त होने के लिये एक आरंभिक प्रेरणा के तौर पर ही किया जा सकता है, किसी स्थायी नैराश्य के तौर पर नहीं। साधना तो यथार्थ में तब आरंभ होती है जब हम पहले जिन चीजों से भागना चाहते थे उन्हें अपने काबू में करने का प्रयत्न करें यहाँ एक प्रकार की राजसिक समता की संभावना होती है, जिसका निम्नतम रूप है आत्मवशित्व और आत्मसंयम प्राप्त करने में, प्राणवेग तथा दुर्बलता से ऊपर उठने में बलवान-स्वभाव का गर्व। किंतु स्टोइक आदर्श इसीको पकड़कर जीव को निम्न प्रकृति को समस्त दुर्बलताओ की अधीनता से सर्वथा मुक्त कर देने का प्रधान साधन बनाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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