गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 186

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

19.समत्व


जो लोग जरा और मरण से छुटकारा पाने के लिये तामसिक वैराग्य से भी आत्मसंयम करते हैं, उनकी साधना को भी गीता स्वीकार करती है। किंतु इस साधना से यदि कोई लाभ होना है तो इसके साथ एक उच्चतर अवस्था को सात्त्विक अनुभूति होनी चाहिये और भगवान् में ही आनंद और भगवान का ही आश्रय लेना चाहिये, तब जीव अपनी इस जुगुत्सा के द्वारा एक उच्चतर स्थिति को प्राप्त होता है, त्रिगुण से ऊपर उठ जाता है और जन्म, मुत्यु, जरा और दुःख से मुक्त होकर आत्मसत्ता का अमृतत्त्व भोगता है जीवन के दुःख और प्रयास को स्वीकार करने की तामसिक अनिच्छा अपने-आपमें एक प्रकार की दुर्बलता और अधोगति है और इसमें यह खतरा भी समाया हुआ है कि इसके द्वारा सबको समान भाव से वैराग्य और संसार से घृणा का उपदेश दिया जा सकता है, जिससे अनाधिकारी जीवों पर तामसिक दुर्बलता और संकुचन की मुहर लग जाती है, उनका बुद्धिभेद होता है, उनकी सतत अभीप्सा, जीवन में विश्वास और पुरुषार्थ की शक्ति-जिसकी मानव-जीव को अपने उपयोगी और आवश्यक राजस प्रयास के लिये आवश्यकता है, ताकि वह अपनी परिस्थिति को वश में कर सके-किसी उच्चतर लक्ष्य, महत्तर प्रयास और बलवत्तर विजय की ओर खुले बिना ( क्योंकि ऐसी क्षमता उसमें अभी नहीं आयी है ) क्षीण हो जाती है।

परंतु अधिकारी जीवों में तामसी विरक्ति उनकी राजसिक आसक्ति तथा निम्नतर जीवन में तल्लीनता को नष्ट करके-जो उनके सत्त्वगुण के जागरण में बाधक होकर उनकी उच्चतर संभावना को राकती है-उपयोगी आध्यात्मिक हेतु सिद्ध कर सकती है। तब इस प्रकार अपनी बनायी हुई शून्यावस्था में आश्रय ढू़ढ़ते हुए वे भगवान् की इस पुकार को सुन पाते हैं कि “ हे जीव! तू जो अपने-आपको इस अनित्य असुखी जगत् में पाता है, मेरी ओर मुंह कर और मुझमें आनंद ले। फिर भी इस क्रिया में समता केवल इतनी है कि यह, जगत जिन-जिन चीजों से बना है उन सभी से समान भाव से भागती है और जगत् के प्रति उपेक्षा और अलगाव का भाव पैदा करती है, इससे यह शक्ति नहीं मिलती जिसके द्वारा हम जगत् के सुखद या दुःखद सब स्पर्शों को समभाव से बिना किसी राग-द्वेष के ग्रहण कर सकें, जो गीता की साधना का एक आवश्यक तत्त्व है। इसलिये यदि हम तामसिक निवृत्ति से ही आरंभ करें-यद्यपि यह बिलकुल आवश्यक नहीं है-तो भी इसकी उपयोग किसी महान् प्रयास में प्रवृत्त होने के लिये एक आरंभिक प्रेरणा के तौर पर ही किया जा सकता है, किसी स्थायी नैराश्य के तौर पर नहीं। साधना तो यथार्थ में तब आरंभ होती है जब हम पहले जिन चीजों से भागना चाहते थे उन्हें अपने काबू में करने का प्रयत्न करें यहाँ एक प्रकार की राजसिक समता की संभावना होती है, जिसका निम्नतम रूप है आत्मवशित्व और आत्मसंयम प्राप्त करने में, प्राणवेग तथा दुर्बलता से ऊपर उठने में बलवान-स्वभाव का गर्व। किंतु स्टोइक आदर्श इसीको पकड़कर जीव को निम्न प्रकृति को समस्त दुर्बलताओ की अधीनता से सर्वथा मुक्त कर देने का प्रधान साधन बनाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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