गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म
इसलिये अवतार-कार्य के गीतोक्त वर्णन को ठीक तरह से समझाने के लिये आवश्यक है कि हम धर्म शब्द के अत्यंत पूर्ण, अत्यंत गंभीर और अत्यंत व्यापक अर्थ को ग्रहण करें, धर्म को वह आंतर और बाह्य विधान समझें जिसके द्वारा भागवत संकल्प और भागवत ज्ञान मानवजाति का आध्यात्मिक विकास साधन करते हैं और जाति के जीवन में उसके विशिष्ट परिस्थितियां और उनके परिणाम निर्मित करते हैं। भारतीय धारणा के हिसाब से धर्म केवल शुभ, उचित, सदाचार, न्याय और आचारनीति ही नहीं बल्कि अन्य प्राणियों के साथ, प्रकृति और ईश्वर के साथ मनुष्यों के जितने भी संबंध हैं उन सबका संपूर्ण नियमन है और यह नियामक तत्त्व ही वह दिव्य धर्मतत्त्व है जो जगत् के सब रूपों और कर्मों के द्वारा, आंतर और बाह्य जीवन के विविध आकारों के द्वारा तथा जगत् में जितने प्रकार के परस्पर-संबंध हैं उनकी व्यवस्था के द्वारा अपने-आपको सिद्ध करता रहता है। धर्म [1] वह है जिसे हम धारण करते हैं और वह भी जो हमारी सब आंतर और बाह्य क्रियाओं को एक साथ धारण किये रहता है। धर्म शब्द का प्राथमिक अर्थ हमारी प्रकृति का वह मूल विधान है जो गुप्त रूप से हमारे कर्मों को नियत करता है और इसलिये इस दृष्टि से प्रत्येक जीव, प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक जाति, प्रत्येक व्यक्ति और समूह का अपना-अपना विशिष्ट धर्म होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ धर्म शब्द ‘धृ’ धातु से बनता है जिसका अर्थ है धारण करना।
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