गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म
जैसे बुद्ध और ईसा, किंतु सदा ही उनकी पार्थिव अभिव्यक्ति की समाप्ति के बाद भी उनके कर्म के फलस्वरूप जाति के केवल नैतिक जीवन में ही नहीं बल्कि उसके सामाजिक और बाह्म जीवन और आदर्शों में भी एक गंभीर और शक्तिशाली परिवर्तन हो जाता है। दूसरी ओर, हो सकता है कि वे दिव्य जीवन, दिव्य व्यक्तित्व और दिव्य शक्ति के अवतार होकर आवें, अपने दिव्य कर्म को करने के लिये, जिसका उद्देश्य बाहर से सामाजिक, नैतिक और राजनीतिक ही दिखयी देता हो; जैसा कि राम और कृष्ण की कथाओं में बताया गया है, फिर भी सदा ही यह अवतरण जाति की आत्मा में उसके आंतरिक जीवन के लिये और उसके आध्यात्मिक नव जन्म के लिये एक ऐसी स्थायी शक्ति का काम करता है। यह एक अनोखी बात है कि बौद्ध और इसाई धर्मों का स्थायी, जीवंत तथा विश्वव्यापक फल यह हुआ कि जिन मनुष्यों तथा कालों ने इनके धार्मिक और आध्यात्मिक मतों, रूपों और साधनाओं का परित्याग कर दिया, उन पर भी इन धर्मों के नैतिक, सामाजिक और वयावहारिक आदर्शो का शक्तिशाली प्रभाव पड़ा। पीछे के हिन्दुओं ने बुद्ध, उनके संघ और धर्म को अमान्य कर दिया, पर बुद्धधर्म के सामाजिक और नैतिक प्रभाव की अमिट छाप उन पर पड़ी हुई है और हिंदूजाति का जीवन और आचार-विचार उससे प्रभावित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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