गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द14.दिव्य कर्म का सिद्धांत
इस रजोगुण से ही तो कामना पैदा हाती है और इसका फल होता है ज्ञान को ढक देना, कामना तथा असफलता और विफलता के अंदर चक्कर काटते रहना, हर्ष और शोक में डोलते रहना, पुण्य और पाप के द्वंद्व में फंसे रहना। परमेश्वर संसार में हो सकते हैं, पर वे संसार के नहीं हैं, वे त्याग के ईश्वर हैं, हमारे कर्मों के प्रभु या कारण नहीं। हमारे कर्मों का स्वामी काम है और उनका कारण अज्ञान। यदि यह जगत्, यह क्षर सृष्टि किसी प्रकार भगवान की अभिव्यक्ति या लीला कही भी जाये तो यह यज्ञ मूढ़ प्रकति के साथ उनकी असिद्ध क्रीड़ा है, यह उनकी अभिव्यक्ति नहीं बल्कि उनका ढकाव ही है। संसार की प्रकृति के प्रथम दर्शन में ही यह बात स्पष्ट हो जाती है और जगत् के पूर्ण अनुभव से भी क्या इसी सत्य की शिक्षा नहीं मिलती? क्या यह अज्ञान का वह चक्र नहीं है जो जीव को कामना और कर्म की प्रेरणा के द्वार बार-बार जन्म लेने के लिये विश्वास करता है और क्या यह जन्म लेना तभी बंद न होगा जब अंत में इस प्रेरणा का क्षय हो जाये या फिर इसे त्याग दिया जाये? केवल कामना ही नहीं, किंतु कर्म भी छोड़ देना आवश्यक है, तभी तो निश्चल आत्मा में प्रतिष्ठित होकर जीव गतिहीन, कर्महीन, क्षोभहीन, केवल ब्रह्म में जा सकेगा। गीता ने संसारी मनुष्य की, कर्मी व्यक्ति की आपत्तियों की अपेक्षा निर्गुण्रह्मवादी, शांतिप्रार्थी की आपत्तियों का उत्तर देने पर ज्यादा ध्यान दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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