गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द14.दिव्य कर्म का सिद्धांत
वह कह सकता है कि मेरे सामने तो कोई ऐसी चीज होनी चाहिये जिसे मैं अपने मन, प्राण और शरीर की क्रिया में पा सकूंगा। क्योंकि यही उसकी प्रकृति और उसका धर्म है और जो बीज उसकी प्रकृति के बाहर की हो उसमें वह अपने-आपको कैसे परिपूर्ण कर सकता है? क्योंकि प्रत्येक जीवन अपनी प्रकृति से बंधा है और उसे अपनी सिद्धि को इस दायरे के अंदर ढूंढना होगा। हमारी मानव-प्रकृति के अनुसार ही हमारी मानव-सिद्धि हो सकती है और इसलिये प्रत्येक मनुष्य को उसके लिये अपने व्यष्टिधर्म अर्थात् स्वधर्म के अनुसार अपने जीवन और कर्म में यत्न करना चाहिये, जीवन और कर्म के बाहर नहीं इस बात को गीता यह उत्तर देती है कि हां, इसमें भी एक सत्य है; मनुष्य के अंदर ईश्वर की पूर्ण अभिव्यक्ति, जीवन में भगवान्, की लीला अवश्य ही आदर्श सिद्धि का एक अंग हैं परंतु यदि तुम उसे केवल बाहर ढूंढ़ो, जीवन में और कर्म के सिद्धांत में ही उसकी खोज करते रहो तो तुम उसे कभी नहीं पा सकते;-क्योंकि तब तुम केवल इतना ही नहीं करोगे कि अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करो, जो अपने-आपको सिद्धि का ही एक विधान है-बल्कि सदा उसके गुंणों के अधीन रहोगे (और यह असिद्धि का एक लक्षण है ) सदा राग-द्वेष और सुख-दुख के द्वंदों में धक्के खाते रहोगे, विशेषतः प्रकृति की उस राजसी प्रवृत्ति के वश हो जाओगे जो काम का चंचल सर्वग्रासी तत्त्व है और क्रोध, शोक और लालसा जिसके जाल हैं, जो कभी संतुष्ट न होने वाली आग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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