आर्ष्टिषेण एवं विश्वामित्र की तपस्या तथा वरप्राप्ति

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 40वें अध्याय में वैशम्पायन ने आर्ष्टिषेण एवं विश्वामित्र की तपस्या तथा वरप्राप्ति का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]

आर्ष्टिषेण एवं विश्वामित्र की तपस्या तथा वर प्राप्ति का वर्णन

जनमेजय ने वैशम्पायन जी से पूछा- ब्रह्मन! मुनिश्रेष्ठ! पूज्य आर्ष्टिषेण ने वहाँ किस प्रकार बड़ी भारी तपस्या की थी तथा सिन्धुद्वीप, देवापि और विश्वामित्र जी ने किस तरह ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था? भगवन! यह सब मुझे बताइये। इसे जानने के लिये मेरे मन में बड़ी भारी उत्सुकता है।

वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! प्राचीन काल की सत्य युग की बात है, द्विज आर्ष्टिषेण सदा गुरुकुल में निवास करते हुए निरन्तर वेद-शास्त्रों के अध्ययन में लगे रहते थे। प्रजानाथ! नरेश्वर! गुरुकुल में सर्वदा रहते हुए भी न तो उनकी विद्या समाप्त हुई और न वे सम्पूर्ण वेद ही पढ़ सके। नरेश्वर! इससे महातपस्वी आर्ष्टिषेण खिन्न एवं विरक्त हो उठे, फिर उन्होंने सरस्वती के उसी तीर्थ में जाकर बड़ी भारी तपस्या की। उस तप के प्रभाव से उत्तम वेदों का ज्ञान प्राप्त करके वे ऋषिश्रेष्ठ विद्वान वेदज्ञ और सिद्ध हो गये। तदनन्तर उन महातपस्वी ने उस तीर्थ को तीन वर प्रदान किये- ‘आज से जो मनुष्य महानदी सरस्वती के इस तीर्थ में स्नान करेगा, उसे अश्वमेध यज्ञ का सम्पूर्ण फल प्राप्त होगा। आज से इस तीर्थ में किसी को सर्प से भय नहीं होगा। थोड़े समय तक ही इस तीर्थ के सेवन से मनुष्य को बहुत अधिक फल प्राप्त होगा’। ऐसा कह कर वे महातेजस्वी मुनि स्वर्ग लोक को चले गये। इस प्रकार पूजनीय एवं प्रतापी आर्ष्टिषेण ऋषि उस तीर्थ में सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं।

महाराज! उन्हीं दिनों उसी तीर्थ में प्रतापी सिन्धुद्वीप तथा देवापि ने वहाँ तप करके महान ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। तात! कुशिकवंशी विश्वामित्र भी वहीं निरन्तर इन्द्रिय संयमपूर्वक तपस्या करते थे। उस भारी तपस्या के प्रभाव से उन्हें ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हुई। राजन! पहले इस भूतल पर गाधि नाम से विख्यात महान क्षत्रिय राजा राज्य करते थे। प्रतापी विश्वामित्र उन्हीं के पुत्र थे। तात! लोग कहते हैं कि कुशिकवंशी राजा गाधि महान योगी और बड़े भारी तपस्वी थे। उन्होंने अपने पुत्र विश्वामित्र को राज्य पर अभिषिक्त करके शरीर को त्याग देने का विचार किया। तब सारी प्रजा उनसे नतमस्तक होकर बोली- ‘महाबुद्धिमान नरेश! आप कहीं न जायं, यहीं रहकर हमारी इस जगत के महान भय से रक्षा करते रहें’। उनके ऐसा कहने पर गाधि ने सम्पूर्ण प्रजाओं से कहा- ‘मेरा पुत्र सम्पूर्ण जगत की रक्षा करने वाला होगा (अतः तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिये)’। राजन यों कहकर राजा गाधि विश्वामित्र को राज सिंहासन पर बिठा कर स्वर्ग लोक को चले गये। तत्पश्चात् विश्वामित्र राजा हुए। वे प्रयत्नशील होने पर भी सम्पूर्ण भूमण्डल की रक्षा नहीं कर पाते थे। एक दिन राजा विश्वामित्र ने सुना कि ‘प्रजा को राक्षसों से महान भय प्राप्त हुआ है’। तब वे चतुरंगिणी सेना लेकर नगर से निकल पड़े और दूर तक का रास्ता तय करके वसिष्ठ के आश्रम के पास जा पहुँचे।

राजन! उनके उन सैनिकों ने वहाँ बहुत से अन्याय एवं अत्याचार किये। तदनन्तर पूज्य ब्रह्मर्षि वसिष्ठ कहीं से अपने आश्रम पर आये। आकर उन्होंने देखा कि वह सारा विशाल वन उजाड़ होता जा रहा है। महाराज! यह देख कर मुनिवर वसिष्ठ राजा विश्वामित्र पर कुपित हो उठे।[1] फिर उन्होंने अपनी गौ नन्दिनी से कहा- ‘तुम भयंकर भील जाति के सैनिकों की सृष्टि करो’। उनके इस प्रकार आज्ञा देने पर उनकी होम धेनु ने ऐसे पुरुषों को उत्पन्न किया, जो देखने में बड़े भयानक थे। उन्होंने विश्वामित्र की सेना पर आक्रमण करके उनके सैनिकों को सम्पूर्ण दिशाओं में मार भगाया। गाधिनन्दन विश्वामित्र ने जब यह सुना कि मेरी सेना भाग गयी तो तप को ही अधिक प्रबल मानकर तपस्या में ही मन लगाया। राजन! उन्होंने सरस्वती के उस श्रेष्ठ तीर्थ में चित्त को एकाग्र करके नियमों और उपवासों के द्वारा अपने शरीर को सुखाना आरम्भ किया। वे कभी जल पीकर रहते, कभी वायु को ही आहार बनाते और कभी पत्ते चबाकर रहते थे। सदा भूमि की वेदी बना कर उस पर सोते और तपस्या सम्बन्धी जो अन्य सारे नियम हैं, उनका भी पृथक-पृथक पालन करते थे। देवताओं ने उनके व्रत में बारंबार विघ्न डाला; परंतु उन महात्मा की बुद्धि कभी नियम से विचलित नहीं होती थी। तदनन्तर महान प्रयत्न के द्वारा नाना प्रकार की तपस्या करके गाधिनन्दन विश्वामित्र अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशित होने लगे।[2]

विश्वामित्र को ऐसी तपस्या से युक्त देख महातेजस्वी एवं वरदायक ब्रह्मा जी ने उन्हें वर देने का विचार किया। राजन! तब उन्होंने यह वर मांगा कि ‘मैं ब्राह्मण हो जाऊं।’ सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मा जी ने उन्हें ‘तथास्तु’ कहकर वह वर दे दिया। उस उग्र तपस्या के द्वारा ब्राह्मणत्व पाकर सफल मनोरथ हुए महायशस्वी विश्वामित्र देवता के समान समस्त भूमण्डल में विचरने लगे। राजन! बलराम जी ने उस श्रेष्ठ तीर्थ में उत्तम ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें दूध देने वाली गौएं, वाहन, शय्या, वस्त्र, अलंकार तथा खाने-पीने के सुन्दर पदार्थ प्रसन्नतापूर्वक दिये। फिर वहाँ से वे बक के आश्रम के निकट गये, जहाँ दल्भ पुत्र बक ने तीव्र तपस्या की थी।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 40 श्लोक 1-20
  2. 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 40 श्लोक 21-32

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