दुर्योधन को देखकर अश्वत्थामा का विषाद एवं प्रतिज्ञा करना

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 65वें अध्याय में दुर्योधन को देखकर अश्वत्थामा का विषाद एवं प्रतिज्ञा करने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

दुर्योधन को देखकर अश्वत्थामा का विषाद

संजय कहते हैं- राजन! संदेश वाहकों के मुख से दुर्योधन के मारे जाने का समाचार सुनकर मरने से बचे हुए कौरव महारथी अश्वत्थामा, कृपाचार्य और सात्वतवंशी कृतवर्मा- जो स्वयं भी तीखे बाण, गदा, तोमर और शक्तियों के प्रहार से विशेष घायल हो चुके थे, तेज चलने वाले घोड़ों से जुते हुए रथ पर सवार हो तुरंत ही युद्ध भूमि में आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि महामनस्वी धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन मार गिराया गया है, मानो वन में कोई विशाल शाल वृक्ष वायु के वेग से टूट कर धराशयी हो गया हो। खून से लथपथ हो दुर्योधन पृथ्वी पर पड़ा छटपटा रहा था, मानो जंगल में किसी व्याघ्र ने बहुत बड़े हाथी को मार गिराया हो। रक्त की धारा में डूबा हुआ वह बारंबार करवटें बदल रहा था। जैसे दैवेच्छा से सूर्य का चक्र गिर पड़ा हो, बहुत बड़ी आँधी चलने से समुद्र सूख गया हो, आकाश में पूर्ण चन्‍द्रमण्डल पर कुहरा छा गया हो; वही दशा उस समय दुर्योधन की हुई थी। मतवाले हाथी के समान पराक्रमी और विशाल भुजाओं वाला वह वीर धूल में सन गया था। जैसे धन चाहने वाले भृत्यगण किसी श्रेष्ठ राजा को घेरे रहते हैं, उसी प्रकार भयंकर मांसभक्षी भूतों ने चारों ओर से उसे घेर रखा था। सके मुँह पर भौंहें तनी हुई थीं, आँखें क्रोध से चढ़ी हुई थीं और गिरे हुए व्याघ्र के समान वह नरश्रेष्ठ वीर अमर्ष में भरा हुआ दिखायी देता था। महाधनुर्धर राजा दुर्योधन को पृथ्वी पर पड़ा हुआ देख कृपाचार्य आदि सभी महारथी मोह के वशीभूत हो गये। वे अपने रथों से उतरकर राजा के पास दौड़े गये और दुर्योधन को देखकर सब लोग उसके पास ही जमीन पर बैठ गये।

महाराज! उस समय अश्वत्थामा की आंखों में आँसू भर आये। वह सिसकता हुआ सम्पूर्ण जगत के राजाधिराज भरत श्रेष्ठ दुर्योधन से इस प्रकार बोला- पुरुष सिंह! निश्चय ही इस मनुष्य लोक में कुछ भी सत्य नहीं है, सभी नाशवान्‌ है, जहाँ तुम्हारे-जैसा राजा धूल में सना हुआ लोट रहा है। राजेन्द्र! तुम पहले सम्पूर्ण जगत के मनुष्यों पर आधिपत्य रखकर सारे भूमण्डल पर हुक्म चलाते थे। वही तुम आज अकेले इस निर्जन वन में कैसे पड़े हुए हो। भरतश्रेष्ठ! न तो मैं दुःशासन को देखता हूँ और न महारथी कर्ण को। अन्य सब सुहृदों का भी मुझे दर्शन नहीं हो रहा है, यह क्या बात है? निश्चय ही काल और लोकों की गति को जानना किसी प्रकार भी कठिन ही है, जिसके अधीन होकर आप धूल में सने हुए पड़े हैं। अहो। ये मूर्धाभिषिक्‍त राजाओं के आगे चलने वाले शत्रुसंतापी महाराज दुर्योधन तिनकों सहित धूल फाँक रहे हैं। यह काल का उलट फेर तो देखो। नृपश्रेष्ठ! महाराज! कहाँ है आपका वह निर्मल छत्र, कहाँ है व्यजन और कहाँ गयी आपकी वह विशाल सेना? किस कारण से कौन-सा कार्य होगा, इसको समझ लेना निश्चय ही बहुत कठिन है; क्योंकि सम्पूर्ण जगत के आदरणीय नरेश होकर भी आज तुम इस दशा को पहुँच गये। तुम तो अपनी साम्राज्‍य-लक्ष्मी के द्वारा इन्द्र की समानता करने वाले थे। आज तुम पर भी यह संकट आया हुआ देख-कर निश्चय हो गया कि किसी भी मनुष्य की सम्पत्ति सदा स्थिर नहीं देखी जा सकती।

दुर्योधन का कृपाचार्य आदि समस्त वीरों से संवाद

राजन! अत्यन्त दुखी हुए अश्वत्थामा की वह बात सुनकर आपके पुत्र राजा दुर्योधन के नेत्रों से शोक के आँसू बहने लगे। उसने दोनों हाथों से नेत्रों को पोंछा और कृपाचार्य आदि समस्त वीरों से यह समयोचित वचन कहा- मित्रो! इस मर्त्यलोक का ऐसा ही धर्म (नियम) है। विधाता ने ही इसका निर्देश किया है, ऐसा कहा जाता है; इसलिये कालक्रम से एक-न-एक दिन सम्पूर्ण प्राणियों के विनाश की घड़ी आ ही जाती है।[1] वही यह विनाश का समय अब मुझे भी प्राप्त हुआ है, जिसे आप लोग प्रत्यक्ष देख रहे हैं। एक दिन मैं सारी पृथ्वी का पालन करता था और आज इस अवस्था को पहुँच गया हूँ। तो भी मुझे इस बात की खुशी है कि कैसी ही आपत्ति क्यों न आयी, मैं युद्ध में कभी पीछे नहीं हटा। पापियों ने मुझे मारा भी तो छल से। सौभाग्यवश मैंने रणभूमि में जूझने की इच्छा रखकर सदा ही उत्साह दिखाया है और भाई-बन्धुओं के मारे जाने पर स्वयं भी युद्ध में ही प्राण-त्याग कर रहा हूँ, इससे मुझे विशेष संतोष है। सौभाग्य की बात है कि मैं आप लोगों को इस प्रकार नरसंहार से मुक्ती देख रहा हूँ। साथ ही आपलोग सकुशल एवं कुछ करने में समर्थ हैं- यह मेरे लिये और भी उत्त‍म एवं प्रसन्नता की बात है। आप लोगों का मुझ पर स्वाभाविक स्नेह है, इसलिये मेरी मृत्यु से यहाँ आप लोगों को जो दुख और संताप हो रहा है, वह नहीं होना चाहिये। यदि आपकी दृष्टि में वेद-शास्त्र प्रामाणिक है तो मैंने अक्षय लोकों पर अधिकार प्राप्त कर लिया। मैं अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण के अद्‌भुत प्रभाव को मानता हुआ भी कभी उनकी प्रेरणा से अच्छी तरह पालन किये हुए क्षत्रिय धर्म से विचलित नहीं हुआ। मैंने उस धर्म का फल प्राप्त किया है; अत: किसी प्रकार भी मैं शोक के योग्य नहीं हूँ। आप लोगों ने अपने स्वरूप के अनुरूप योग्य पराक्रम प्रकट किेया और सदा मुझे विजय दिलाने की ही चेष्टा की तथापि देव के विधान का उल्‍लघंन करना किसी के लिये भी सर्वथा कठिन है। राजेन्द्र! इतना कहते-कहते दुर्योधन की आँखें आँसुओं से भर आयीं और वह वेदना से अत्यन्त व्याकुल होकर चुप हो गया। उससे कुछ बोला नहीं गया।[2]

अश्वत्थामा की प्रतिज्ञा

राजा दुर्योधन को शोक के आँसू बहाते देख अश्वत्थामा प्रलयकाल की अग्नि के समान क्रोध से प्रज्वलित हो उठा। रोष के आवेश में भरकर उसने हाथ पर हाथ दबाया और अश्रुगद्गद वाणी द्वारा उसने राजा दुर्योधन से इस प्रकार कहा- राजन। नीच पाण्डवों ने अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्म के द्वारा मेरे पिता का वध किया परंतु उसके कारण भी मैं उतना संतप्त नहीं हूँ जैसा कि आज तुम्हारे वध के कारण मुझे कष्ट हो रहा है। प्रभो! मैं सत्य की शपथ खाकर जो कह रहा हूँ मेरी इस बात को सुनो। मैं अपने इष्ट आपूर्त दान धर्म तथा अन्य शुभ कर्मों की शपथ खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज श्रीकृष्णा के देखते-देखते सम्‍पूर्ण पांचालों को सभी उपायों द्वारा यमराज के लोक में भेज दूँगा। महाराज! इसके लिये तुम मुझे आज्ञा दे दो।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 65 श्लोक 1-23
  2. 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 65 श्लोक 24-46

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