स्कन्द की मातृकाओं का परिचय

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 46वें अध्याय में संजय ने कुमार कार्तिकेय की मातृकाओं का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

स्कन्द की मातृकाओं का परिचय

वैशम्पायन जी कहते हैं- वीर नरेश! अब मैं उन मातृकाओं के नाम बता रहा हूं, जो शत्रुओं का संहार करने वाली तथा कुमार कार्तिकेय की अनुचरी हैं। भरतनन्दन! तुम उन यशस्वी मातृकाओं के नाम सुनो, जिन कल्याणकारिणी देवियों ने विभागपूर्वक तीनों लोकों को व्याप्त कर रखा है। कुरुवंशी! भरतकुलनन्दन! राजेन्द्र! वे नाम इस प्रकार हैं- प्रभावती, विशालाक्षी, पालिता, गोस्तनी, श्रीमती, बहुला, बहुपुत्रिका, अप्सु जाता, गोपाली, बृहदम्बालिका, जयावती, मालतिका, ध्रुवरत्ना, भयंकरी, वसुदामा, दामा, विशोका, नन्दिनी, एकचूडा, महाचूड़ा, चक्रनेमि, उत्तेजनी, जयत्सेना, कमलाक्षी, शोभना, शत्रुंजया, क्रोधना, शलभी, खरी, माधवी, शुभवक्त्रा, तीर्थनेमि, गीताप्रिया, कल्याणी, रुद्ररोमा, अमिताशना, मेघस्वना, भोगवती, सुभ्रू, कनकावती, अलाताक्षी, वीर्यवती, विद्युज्जिह्वा, पद्मावती, सुनक्षत्रा, कन्दरा, बहुयोजना, संतानिका, कमला, महाबला, सुदामा, बहुदामा, सुप्रभा, यशस्विनी, नृत्यप्रिया, शतोलूखलमेखला, शतघण्टा, शतानन्दा, भगनन्दा, भाविनी, वपुष्मती, चन्द्रसीता, भद्रकाली, ऋक्षाम्बिका, निष्कुटिका, वामा, चत्वरवासिनी, सुमंगला, स्वस्तिमती, बुद्धिकामा, जयप्रिया, धनदा, सुप्रसादा, भवदा, जलेश्वरी, एडी, भेडी, समेडी, वेतालजननी, कण्डूतिकालिका, देवमित्रा, वसुश्री, कोटरा, चित्रसेना, अचला, कुक्कुटिका, शंखलिका, शकुनिका, कुण्डारिका, कौकुलिका, कुम्भिका, शतोदरी, उत्क्राथिनी, जलेला, महावेगा, कंकणा, मनोजवा, कण्टकिनी, प्रघसा, पूतना; केशयन्त्री, त्रुटि, वामा, क्रोशना, तड़ित्प्रभा, मन्दोदरी, मुण्डी, मेघवाहिनी, सुभगा, लम्बिनी, लम्बा, ताम्रचूड़ा, विकाशिनी, ऊर्ध्ववेणीधरा, पिंगाक्षी, लोहमेखला, पृथुवस्त्रा, मधुलिका, मधुकुम्भा, पक्षालिका, मत्कुलिका, जरायु, जर्जरानना, ख्याता, दहदहा, धमधमा, खण्डखण्डा, पूषणा, मणिकुट्टिका, अमोघा, लम्बपयोधरा, वेणुवीणाधरा, शशोलूकमुखी, कृष्णा, खरजंघा, महाजवा, शिशुमारमुखी, श्वेता, लोहिताक्षी, विभीषणा, जटालिका, कामचरी, दीर्घजिह्वा, बलोत्कटा, कालेहिका, वामनिका, मुकुटा, लोहिताक्षी, महाकाया, हरिपिण्डा, एकत्वचा, सुकुसुमा, कृष्णकर्णी, क्षुरकर्णी, चतुष्कर्णी, कर्णप्रावरणा, चतुष्पथनिकेता, गोकर्णी, महिषानना, खरकर्णी, महाकर्णी, भेरीस्वना, महास्वना, शंखश्रवा, कुम्भश्रवा, भगदा, महाबला, गणा, सुगणा, अभीति, कामदा, चतुष्पथरता, भूतितीर्था, अन्यगोचरी, पशुदा, वित्तदा, सुखदा, महायशा, पयोदा, गोदा, महिषदा, सुविशाला, प्रतिष्ठा, सुप्रतिष्ठा, रोचमाना, सुरोचना, नौकर्णी, मुखकर्णी, विशिरा, मन्थिनी, एकचन्द्रा, मेघकर्णा, मेघमाला और विरोचना

भरतश्रेष्ठ! ये तथा और भी नाना रूपधारिणी बहुत सी सहस्रों मातृकाएं हैं, जो कुमार कार्तिकेय का अनुसरण करती हैं। भरतनन्दन! इनके नख, दांत और मुख सभी विशाल हैं। ये सबला, मधुरा (सुन्दरी), युवावस्था से सम्पन्न तथा वस्त्राभूषणों से विभूषित हैं। इनकी बड़ी महिमा है। ये अपनी इच्छा के अनुसार रूप धारण करने वाली हैं। इनमें से कुछ माताृकाओं के शरीर केवल हड्डियों के ढांचे हैं। उनमें मांस का पता नहीं है। कुछ श्वेत वर्ण की हैं और कितनों की ही अंगकान्ति सुवर्ण के समान है। भरतश्रेष्ठ! कुछ मातृकाएं कृष्ण मेघ के समान काली तथा कुछ धूम्रवर्ण की हैं। कितनों की कान्ति अरुण वर्ण की है। वे सभी महान भोगों से सम्पन्न हैं। उनके केश बड़े-बड़े और वस्त्र उज्ज्वल हैं। वे ऊपर की ओर वेणी धारण करने वाली, भूरी आंखों से सुशोभित तथा लम्बी मेखला से अलंकृत हैं। उनमेें से किन्हीं के उदर, किन्हीं के कान तथा किन्हीं के दोनों स्तन लंबे हैं। कितनों की आंखें तांबे के समान लाल रंग की हैं। कुछ मातृकाओं के शरीर की कान्ति भी ताम्रवर्ण की हैं। बहुतों की आंखें काले रंग की हैं।[1] वे वर देने में समर्थ, अपनी इच्छा के अनुसार चलने वाली और सदा आनन्द में निमग्न रहने वाली हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले भरतश्रेष्ठ! उन मातृकाओं में से कुछ यम की शक्तियां हैं, कुछ रुद्र की। कुछ सोम की शक्तियां हैं और कुछ कुबेर की। वे सबकी सब महान बल से सम्पन्न हैं। इसी तरह कुछ वरुण की, कुछ देवराज इन्द्र की, कुछ अग्नि, वायु, कुमार, ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य तथा भगवान वराह की महाबलशालिनी शक्तियां हैं, जो रूप में अप्सराओं के समान मनोहारिणी और मनोरमा हैं। वे मीठी वाणी बोलने में कोयल और धनसमृद्धि में कुबेर के समान हैं। युद्ध में इन्द्र के सदृश पराक्रम प्रकट करने वाली तथा अग्नि के समान तेजस्विनी हैं। युद्ध छिड़ जाने पर वे सदा शत्रुओं के लिये भयदायिनी होती हैं। वे इच्छानुसार रूप धारण करने वाली तथा वायु के समान वेगशालिनी हैं। उनके बल, वीर्य और पराक्रम अचिन्त्य हैं। वे वृक्षों, चबूतरों और चौराहों पर निवास करती हैं। गुफाएं, श्मशान, पर्वत और झरने भी उनके निवास स्थान हैं। वे नाना प्रकार के आभूषण, पुष्पहार और वस्त्र धारण करती हैं। उनके वेश नाना प्रकार के और विचित्र हैं। वे अनेक प्रकार की भाषाएं बोलती हैं। ये तथा और भी बहुत से शत्रुओं को भयभीत करने वाले गण देवेन्द्र की सम्मति से महात्मा स्कन्द का अनुसरण करने लगे।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-35
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 46 श्लोक 36-54

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