वैशम्पायन द्वारा विभिन्न तीर्थों का वर्णन

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 37वें अध्याय में वैशम्पायन ने विभिन्न तीर्थों का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]

सुभूमिक तीर्थ का माहात्मय

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! उदपान तीर्थ से चलकर हलधारी बलराम विनशन तीर्थ में आये, जहाँ (दुष्कर्म परायण) शूद्रों और आमीरों के प्रति द्वेष होने से सरस्वती नदी विनष्ट (अदृश्य) हो गयी है। इसीलिये ऋषिगण उसे सदा विनशन तीर्थ कहते हैं। महाबली बलराम वहाँ भी सरस्वती में आचमन और स्नान करके उसके सुन्दर तट पर स्थित हुए सुभूमिक तीर्थ में गये। उस तीर्थ में गौरवर्ण तथा निर्मल मुख वाली सुन्दरी अप्सराएं आलस्य त्याग कर सदा नाना प्रकार की विमल क्रीड़ाओं द्वारा मनोरन्जन करती हैं। जनेश्वर! वहाँ उस ब्राह्मण सेवित पुण्य तीर्थ में गन्धर्वो सहित देवता भी प्रतिमास आया करते हैं। राजन! गन्धर्वगण और अप्सराएं एक साथ मिलकर वहाँ आती और सुख पूर्वक विचरण करती दिखायी देती हैं। वहाँ देवता और पितर लता-वेलों के साथ आमोदित होते हैं, उनके ऊपर सदा पवित्र एवं दिव्य पुष्पों की वर्षा बारंबार होती रहती है। राजन! सरस्वती के सुन्दर तट पर वह उन उप्सराओं की मंगलमयी क्रीड़ा भूमि है, इसलिये वह स्थान सुभूमिक नाम से विख्यात है। बलराम जी ने वहाँ स्नान करके ब्राह्मणों को धन दान किया और दिव्य गीत एवं दिव्य वाद्यों की ध्वनि सुनकर देवताओं, गन्धर्वो तथा राक्षसों की बहुत सी मूर्तियों का दर्शन किया।

गन्धर्व तीर्थ, गर्ग स्त्रोत तीर्थ का वर्णन

तत्पश्चात रोहिणीनन्दन बलराम गन्धर्व तीर्थ में गये। वहाँ तपस्या में लगे हुए विश्वावसु आदि गन्धर्व अत्यन्त मनोरम नृत्य, वाद्य और गीत का आयोजन करते रहते हैं। हलधर ने वहाँ भी ब्राह्मणों को भेड़, बकरी, गाय, गदहा, ऊंट और सोना-चांदी आदि नाना प्रकार के धन देकर उन्हें इच्छानुसार भोजन कराया तथा प्रचुर धन से संतुष्ट करके ब्राह्मणों के साथ ही वहाँ से प्रस्थान किया। उस समय ब्राह्मण लोग बलराम जी की बड़ी स्तुति करते थे। उस गन्धर्व तीर्थ से चल कर एक कान में कुण्डल धारण करने वाले शत्रुदमन महाबाहु बलराम गर्ग स्त्रोत नामक महातीर्थ में आये। जनमेजय! वहाँ तपस्या से पवित्र अन्तः करण वाले महात्मा वृद्ध गर्ग ने सरस्वती के उस शुभ तीर्थ में काल का ज्ञान, काल की गति, ग्रहों और नक्षत्रों के उलट-फेर, दारुण उत्पात तथा शुभ लक्षण- इन सभी बातों की जानकारी प्राप्त कर ली थी। उन्हीं के नाम से वह तीर्थ गर्ग स्त्रोत कहलाता है। सामर्थ्यशाली नरेश्वर! वहाँ उत्तम व्रत का पालन करने वाले ऋषियों ने काल ज्ञान के लिये सदा महाभाग गर्ग मुनि की उपासना (सेवा) की थी।

शंख तीर्थ का वर्णन

महाराज! वहाँ जाकर श्वेतचन्दन चर्चित, नीलाम्बरधारी महायशस्वी बलराम जी विशुद्ध अन्तः करण वाले महर्षियों को विधिपूर्वक धन देकर ब्राह्मणों को नाना प्रकार के भक्ष्य भोज्य पदार्थ समर्पित करके वहाँ से शंख तीर्थ में चले गये। वहाँ ताल चिह्नित ध्वजा वाले बलवान बलराम ने महाशंख नामक एक वृक्ष देखा, जो महान मेरु पर्वत के समान ऊंचा और श्वेताचल के समान उज्ज्वल था। उसके नीचे ऋषियों के समूह निवास करते थे। वह वृक्ष सरस्वती के तट पर ही उत्पन्न हुआ था।[1] उस वृक्ष के आस-पास यक्ष, विद्याधर, अमित तेजस्वी राक्षस, अनन्त बलशाली पिशाच तथा सिद्धगण सहस्रों की संख्या में निवास करते थे। वे सब के सब अन्न छोड़ कर व्रत और नियमों का पालन करते हुए समय-समय पर उस वृक्ष का ही फल खाया करते थे। पुरुषश्रेष्ठ! वे उन स्वीकृत नियमों के अनुसार पृथक-पृथक विचरते हुए मनुष्यों से अदृश्य रह कर घूमते थे। नरव्याघ्र! इस प्रकार वह वनस्पति इस विश्व में विख्यात था। वह वृक्ष सरस्वती का लोक विख्यात पावन तीर्थ है। यदु श्रेष्ठ बलराम उस तीर्थ में दूध देने वाली गौओं का दान करके तांबे और लोहे के बर्तन तथा नाना प्रकार के वस्त्र भी ब्राह्मणों को दिये। ब्राह्मणों का पूजन करके वे स्वयं भी तपस्ती मुनियों द्वारा पूजित हुए।[2]

द्वैतवन तीर्थ का वर्णन

राजन! वहाँ से हलधर बलभद्र जी पवित्र द्वैतवन में आये और वहाँ के नाना वेशधारी मुनियों का दर्शन करके जल में गोता लगा कर उन्होंने ब्राह्मणों का पूजन किया। राजन! इसी प्रकार विप्रवृन्द को प्रचुर भोग सामग्री अर्पित करके फिर बलराम जी सरस्वती के दक्षिण तट पर होकर यात्रा करने लगे। महाराज! इस प्रकार थोड़ी ही दूर जाकर महाबाहु, महायशस्वी धर्मात्मा भगवान बलराम नागधन्वा नामक तीर्थ में पहुँच गये, जहाँ महातेजस्वी नागराज वासुकि का बहुसंख्यक सर्पो से घिरा हुआ निवास स्थान है। वहाँ सदा चौदह हज़ार ऋषि निवास करते हैं। वहीं देवताओं ने आकर सर्पो में श्रेष्ठ वासुकि को समस्त सर्पो के राजा के पद पर विधिपूर्वक अभिषिक्त किया था। पौरव! वहाँ किसी को सर्पो से भय नहीं होता। उस तीर्थ में भी बलराम जी ब्राह्मणों को विधिपूर्वक ढेर-के-ढेर रत्न देकर पूर्व दिशा की ओर चल दिये, जहाँ पग-पग पर अनेक प्रकार के प्रसिद्ध तीर्थ प्रकट हुए हैं। उनकी संख्या लगभग एक लाख है। उन तीर्थो में स्नान करके उन्होंने ऋषियों के बताये अनुसार व्रत-उपवास आदि नियमों का पालन किया। फिर सब प्रकार के दान करके तीर्थ निवासी मुनियों को मस्तक नवा कर उनके बताये हुए मार्ग से वे पुनः उस स्थान की ओर चल दिये, जहाँ सरस्वती हवा की मारी हुई वर्षा के समान पुनः पूर्व दिशा की ओर लौट पड़ी हैं। राजन! नैमिषारण्य निवासी महात्मा मुनियों के दर्शन के लिये पूर्व दिशा की ओर लौटी हुई सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती का दर्शन करके श्वेत-चन्दन चर्चित हलधारी बलराम आश्चर्य चकित हो उठे।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-20
  2. 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 37 श्लोक 21-45

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