प्रभासक्षेत्र के प्रभाव तथा चंद्रमा के शापमोचन की कथा

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 35वें अध्याय में संजय ने प्रभास-क्षेत्र के प्रभाव का वर्णन के प्रसंग में चंद्रमा के शापमोचन की कथा का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

चंद्रमा के शापमोचन की कथा

जनमेजय बोले- ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ और मनुष्यों में उत्तम ब्राह्मण देव! अब आप मुझे सरस्वती तटवर्ती तीर्थों के गुण, प्रभाव और उत्पत्ति की कथा सुनाइये। भगवन! क्रमशः उन तीर्थों के सेवन का फल और जिस कर्म से वहाँ सिद्धि प्राप्त होती है, उसका अनुष्ठान भी बताइये, मेरे मन में यह सब सुनने के लिये बड़ी उत्कण्ठा हो रही है। वैशम्पायन जी ने कहा- राजेन्द्र! मैं तुम्हें तीर्थों के गुण, प्रभाव, उत्पत्ति तथा उनके सेवन का पुण्य फल बता रहा हूँ। वह सब तुम ध्यान से सुनो। महाराज! यदुकुल के प्रमुख वीर बलराम जी सबसे पहले ऋत्विजों, सुहृदों और ब्राह्मणों के साथ पुण्यमय प्रभास क्षेत्र में गये, जहाँ राजयक्ष्मा से कष्ट पाते हुए चन्द्रमा को शाप से छुटकारा मिला था। नरेन्द्र! वे वहीं पुनः अपना तेज प्राप्त करके सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा को प्रभासित करने के कारण ही वह प्रधान तीर्थ इस पृथ्वी पर प्रभास नाम से विख्यात हुआ।[1]

जनमेजय ने पूछा- भगवन! चन्द्रमा कैसे राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो गये और उस उत्तम तीर्थ में किस प्रकार उन्होंने स्नान किया? महामुने! उस तीर्थ में गोता लगाकर चन्द्रमा पुनः किस प्रकार हृष्ट-पुष्ट हुए? यह सब प्रसंग मुझे विस्तारपूर्वक बताइये। वैशम्पायनजी ने कहा- तात! प्रजानाथ! प्रजापति दक्ष के बहुत सी संतानें उत्पन्न हुई थीं। उनमें से अपनी सत्ताईस कन्याओं का विवाह उन्होंने चन्द्रमा के साथ कर दिया था। राजेन्द्र! शुभकर्म करने वाले सोम की वे पत्नियां समय की गणना के लिये नक्षत्रों से सम्बन्ध रखने के कारण उसी नाम से विख्यात हुई। वे सब की सब विशाल नेत्रों से सुशोभित होती थीं। इस भूतल पर उनके रूप की समानता करने वाली कोई स्त्री नहीं थी। उनमें भी रोहिणी अपने रूप-वैभव की दृष्टि से सब की अपेक्षा बढ़ी-चढ़ी थी। इसलिये भगवान चन्द्रमा उससे अधिक प्रेम करने लगे, वही उनकी हृदयवल्लभा हुई; अतः वे सदा उसी का उपभोग करते थे। राजेन्द्र! पूर्वकाल में चन्द्रमा सदा रोहिणी के ही समीप रहते थे; अतः नक्षत्र नाम से प्रसिद्ध हुई महात्मा सोम की वे सारी पत्नियां उन पर कुपित हो उठीं। और आलस्य छोड़कर अपने पिता के पास जाकर बोलीं- ‘प्रभो! चन्द्रमा हमारे पास नहीं आते। वे सदा रोहिणी का ही सेवन करते हैं। अतः प्रजेश्वर! हम सब बहिनें एक साथ नियमित आहार करके तपस्या में संलग्न हो आपके ही पास रहेंगी’।

उनकी यह बात सुनकर प्रजापति दक्ष ने चन्द्रमा से कहा- ‘सोम! तुम अपनी सभी पत्नियों के साथ समानतापूर्ण बर्ताव करो, जिससे तुम्हें महान पाप न लगे’। फिर दक्ष ने उन सभी कन्याओं से कहा- ‘अब तुम लोग चन्द्रमा के पास ही जाओ। वे मेरी आज्ञा से तुम सब लोगों के प्रति समान भाव रखेंगे’। पृथ्वीनाथ! पिता के बिदा करने पर वे पुनः चन्द्रमा के घर मे लौट गयीं, तथापि भगवान सोम फिर रोहिणी के पास ही अधिकाधिक प्रेमपूर्वक रहने लगे। तब वे सब कन्याएं पुनः एक साथ अपने पिता के पास जाकर बोलीं- ‘हम सब लोग आपकी सेवा में तत्पर रहकर आपके ही समीप रहेंगी। चन्द्रमा हमारे साथ नहीं रहते। उन्होंने आपकी बात नहीं मानी’। उनकी बात सुनकर दक्ष ने पुनः सोम से कहा- ‘प्रकाशमान चन्द्रदेव! तुम अपनी सभी पत्नियों के साथ समान बर्ताव करो, नहीं तो तुम्हे शाप दे दूंगा’। दक्ष के इतना कहने पर भी भगवान चन्द्रमा उनकी बात की अवहेलना करके केवल रोहिणी के ही साथ रहने लगे। यह देख दूसरी स्त्रियां पुनः क्रोध से जल उठीं और पिता के पास जा उनके चरणों में मस्तक नवाकर प्रणाम करने के अनन्तर बोलीं- ‘भगवन! सोम हमारे पास नहीं रहते। अतः आप हमें शरण दें। भगवान चन्द्रमा सदा रोहिणी के ही समीप रहते हैं। वे आपकी बात को कुछ गिनते ही नहीं हैं। हम लोगों पर स्नेह रखना नहीं चाहते हैं; अतः आप हम सब लोगों की रक्षा करें, जिससे चन्द्रमा हमारे साथ भी सम्बन्ध रखें’।

पृथ्वीनाथ! यह सुनकर भगवान दक्ष कुपित हो उठे। उन्होंने चन्द्रमा के लिये रोषपूर्वक राजयक्ष्मा की सृष्टि की। वह चन्द्रमा के भीतर प्रविष्ट हो गया।[2] यक्ष्मा से शरीर ग्रस्त हो जाने के कारण चन्द्रमा प्रतिदिन क्षीण होने लगे। राजन! उस यक्ष्मा से छूटने के लिये उन्होंने बड़ा यत्न किया। महाराज! नाना प्रकार के यज्ञ-यागों का अनुष्ठान करके भी चन्द्रमा उस शाप से मुक्त न हो सके और धीरे-धीरे क्षीण होते चले गये। चन्द्रमा के क्षीण होने से अन्न आदि औषधियां उत्पन्न नहीं होती थीं। उन सब के स्वाद, रस और प्रभाव नष्ट हो गये। औषधियों के क्षीण होने से समस्त प्राणियों का भी क्षय होने लगा। इस प्रकार चन्द्रमा के क्षय के साथ-साथ सारी प्रजा अत्यन्त दुर्बल हो गयी। पृथ्वीनाथ! उस समय देवताओं ने चन्द्रमा से मिलकर पूछा- ‘आपका रूप ऐसा कैसे हो गया? यह प्रकाशित क्यों नहीं होता है? हम लोगों से सारा कारण बताइये, जिससे आप को महान भय प्राप्त हुआ। आपकी बात सुनकर हम लोग इस संकट के निवारण का कोई उपाय करेंगे’।

उनके इस प्रकार पूछने पर चन्द्रमा ने उन सब को उत्तर देते हुए अपने को प्राप्त हुए शाप के कारण राजयक्ष्मा की उत्पत्ति बतलायी। उनका वचन सुनकर देवता दक्ष के पास जाकर बोले- ‘भगवन! आप चन्द्रमा पर प्रसन्न होइये और यह शाप हटा लीजिये। चन्द्रमा क्षीण हो चुके हैं और उनका कुछ ही अंश शेष दिखायी देता है। देवेश्वर! उनके क्षय से लता, वीरुत्, औषधियां भाँति-भाँति के बीज और सम्पूर्ण प्रजा भी क्षीण हो गयी है। उन सबके क्षीण होने पर हमारा भी क्षय हो जायगा। फिर हमारे बिना संसार कैसे रह सकता है? लोकगुरो! ऐसा जानकर आपको चन्द्रदेव पर अवश्य कृपा करनी चाहिये’। उनके ऐसा कहने पर प्रजापति दक्ष देवताओं से इस प्रकार बोले- ‘महाभाग देवगण! मेरी बात पलटी नहीं जा सकती। किसी विशेष कारण से वह स्वतः निवृत्त हो जायगी। यदि चन्द्रमा अपनी सभी पत्नियों के प्रति सदा समान बर्ताव करें और सरस्वती के श्रेष्ठ तीर्थ में गोता लगायें तो वे पुनः बढ़कर पुष्ट हो जायेंगे। देवताओं! मेरी यह बात अवश्य सच होगी। सोम आधे मास तक प्रतिदिन क्षीण होंगे और आधे मास तक निरन्तर बढ़ते रहेंगे। मेरी यह बात अवश्य सत्य होगी। पश्चिमी समुद्र के तट पर जहाँ सरस्वती और समुद्र का संगम हुआ है, वहाँ जाकर चन्द्रमा देवेश्वर महादेव जी की आराधना करें तो पुनः ये अपनी कान्ति प्राप्त कर लेंगे’। ऋषि (दक्ष प्रजापति) के इस आदेश से सोम सरस्वती के प्रथम तीर्थ प्रभास क्षेत्र में गये। महातेजस्वी महाकान्तिमान चन्द्रमा ने अमावास्या को उस तीर्थ में गोता लगाया। इससे उन्हें शीतल किरणें प्राप्त हुई और वे सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करने लगे।

राजेन्द्र! फिर सम्पूर्ण देवता सोम के साथ महान प्रकाश प्राप्त करके पुनः दक्ष प्रजापति के सामने उपस्थित हुए। तब भगवान प्रजापति ने समस्त देवताओं को विदा कर दिया और सोम से पुनः प्रसन्नतापूर्वक कहा- ‘बेटा! अपनी स्त्रियों तथा ब्राह्मणों की कभी अवहेलना न करना। जाओ, सदा सावधान रहकर मेरी आज्ञा का पालन करते रहो’। महाराज! ऐसा कहकर प्रजापति ने उन्हें विदा कर दिया। चन्द्रमा अपने स्थान को चले गये और सारी प्रजा पूर्ववत प्रसन्न रहने लगी।[3] इस प्रकार चन्द्रमा को जैसे शाप प्राप्त हुआ था और महान प्रभास तीर्थ जिस प्रकार सब तीर्थो में श्रेष्ठ माना गया, वह सारा प्रसंग मैंने तुमसे कह सुनाया। महाराज! चन्द्रमा उत्तम प्रभास तीर्थ में प्रत्येक अमावास्या को स्नान करके कान्तिमान एवं पुष्ट होते हैं। भूमिपाल! इसीलिये सब लोग इसे प्रभास तीर्थ के नाम से जानते हैं; क्योंकि उसमें गोता लगाकर चन्द्रमा ने उत्कृष्ट प्रभा प्राप्त की थी। तदनन्तर भगवान बलराम चमसोदेद नामक तीर्थ में गये। उस तीर्थ को सब लोग चमसोदेद के नाम से ही पुकारते हैं। श्रीकृष्ण के बड़े भाई हलधारी बलराम ने वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके उत्तम दान दे एक रात रह कर बड़ी उतावली के साथ वहाँ से उदपान तीर्थ को प्रस्थान किया, जो मंगलकारी आदि तीर्थ है। राजेन्द्र जनमेजय! उदपान वह तीर्थ है, जहाँ उपस्थित होने मात्र से महान फल की प्राप्ति होती है। सिद्ध पुरुष वहाँ औषधियों (वृक्षों और लताओं) की स्निग्धता और भूमि की आर्द्रता देखकर अदृश्य हुई सरस्वती को भी जान लेते हैं।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 35 श्लोक 25-42
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 35 श्लोक 43-61
  3. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 35 श्लोक 62-83
  4. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 35 श्लोक 84-90

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