- महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 36वें अध्याय में संजय ने उदपान तीर्थ की उत्पत्ति तथा त्रित मुनि के कूप में गिरने की कथा का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
उदपान तीर्थ की उत्पत्ति और त्रित मुनि का कूप में गिरना
वैशम्पायन जी कहते हैं- महाराज! उस चमसोदेद तीर्थ से चल कर बलराम जी यशस्वी त्रित मुनि के उदपान तीर्थ में गये, जो सरस्वती नदी के जल में स्थित है। मुसलधारी बलराम जी ने वहाँ जल का स्पर्श, आचमन एवं स्नान करके बहुत सा द्रव्य दान करने के पश्चात् ब्राह्मणों का पूजन किया। फिर वे बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ महातपस्वी त्रित मुनि धर्मपरायण होकर रहते थे। उन महात्मा ने कुएं में रहकर ही सोमपान किया था। उनके दो भाई उस कुएं में ही उन्हें छोड़ कर घर को चले गये थे। इससे ब्राह्मण श्रेष्ठ त्रित ने दोनों को शाप दे दिया था। जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन! उदपान तीर्थ कैसे हुआ? वे महातपस्वी त्रित मुनि उसमें कैसे गिर पड़े और द्विज श्रेष्ठ! उनके दोनों भाइयों ने उन्हें क्यों वहीं छोड़ दिया था? क्या कारण था, जिससे वे दोनों भाई उन्हें कुएं में ही त्याग कर घर चले गये थे? वहाँ रहकर उन्होंने यज्ञ और सोमपान कैसे किया? ब्रह्मन! यदि यह प्रसंग मेरे सुनने योग्य समझें तो अवश्य मुझे बतावें।
वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! पहले युग में तीन सहोदर भाई रहते थे। वे तीनों ही मुनि थे। उनके नाम थे एकत, द्वित और त्रित। वे सभी महर्षि सूर्य के समान तेजस्वी, प्रजापति के समान संतानवान और ब्रह्मवादी थे। उन्होंने तपस्या द्वारा ब्रह्मलोक पर विजय प्राप्त की थी। उनकी तपस्या, नियम और इन्द्रियनिग्रह से उनके धर्म परायण पिता गौतम सदा ही प्रसन्न रहा करते थे। उन पुत्रों की त्याग तपस्या से संतुष्ट रहते हुए वे पूजनीय महात्मा गौतम दीर्घकाल के पश्चात् अपने अनुरूप स्थान (स्वर्ग लोक) में चले गये। राजन! उन महात्मा गौतम के यजमान जो राजा लोग थे, वे सब उनके स्वर्गवासी हो जाने पर उनके पुत्रों का ही आदर-सत्कार करने लगे। नरेश्वर! उन तीनों में भी अपने शुभ कर्म और स्वाध्याय के द्वारा महर्षि त्रित ने सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया। जैसे उनके पिता सम्मानित थे, वैसे ही वे भी हो गये। महान सौभाग्यशाली और पुण्यात्मा सभी महर्षि भी महाभाग त्रित का उनके पिता के तुल्य ही सम्मान करते थे। राजन! एक दिन की बात है, उनके दोनों भाई एकत और द्वित यज्ञ और धन के लिये चिन्ता करने लगे। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि हम लोग त्रित को साथ लेकर यजमानों का यज्ञ करावें और दक्षिणा के रूप में बहुत से पशु प्राप्त करके महान फलदायक यज्ञ का अनुष्ठान करें और उसी में प्रसन्नतापूर्वक सोमरस का पान करें। राजन! ऐसा विचार करके उन तीनों भाइयों ने वही किया। वे सभी यजमानों के यहाँ पशुओं की प्राप्ति के उद्देश्य से गये और उनसे विधिपूर्वक यज्ञ करवा कर उस याज्य कर्म के द्वारा उन्होंने बहुतेरे पशु प्राप्त कर लिये।
तत्पश्चात् वे महात्मा महर्षि पूर्व दिशा की ओर चल दिये। महाराज! उनमें त्रित मुनि तो प्रसन्नतापूर्वक आगे-आगे चलते थे और एकत तथा द्वित पीछे रहकर पशुओं को हांकते जाते थे।[1] पशुओं के उस महान समुदाय को देखकर एकत और द्वित के मन में यह चिन्ता समायी कि किस उपाय से ये गौएं त्रित को न मिल कर हम दोनों के ही पास रह जायं। जनेश्वर! उन एकत और द्वित दोनों पापियों ने एक दूसरे से सलाह करके परस्पर जो कुछ कहा, वह बताता हूं, सुनो। त्रित यज्ञ कराने में कुशल हैं, त्रित वेदों के परिनिष्ठित विद्वान हैं, अतः वे और बहुत सी गौएं प्राप्त कर लेंगे। इस समय हम दोनों एक साथ होकर इन गौओं। को हांक ले चलें और त्रित हमसे अलग होकर जहाँ इच्छा हो वहाँ चले जायं। रात्रि का समय था और वे तीनों भाई रास्ता पकड़े चले आ रहे थे। उनके मार्ग में एक भेडि़या खड़ा था। वहाँ पास ही सरस्वती के तट पर एक बहुत बड़ा कुआं था। त्रित अपने आगे रास्ते में खड़े हुए भेडि़ये को देखकर उसके भय से भागने लगे। भागते-भागते वे समस्त प्राणियों के लिये भयंकर उस महाघोर अगाध कूप में गिर पड़े। महाराज! कुएं में पहुँचने पर मुनिश्रेष्ठ त्रित ने बड़े जोर से आर्तनाद किया, जिसे उन दोनों मुनियों ने सुना। अपने भाई को कुएं में गिरा हुआ जानकर भी दोनों भाई एकत और द्वित भेड़िये के भय और लोभ से उन्हें वहीं छोड़कर चल दिये। राजन! पशुओं के लोभ में आकर उन दोनों भाइयों ने उस समय उन महातपस्वी त्रित को धूलि से भरे हुए उस निर्जल कूप में ही छोड़ दिया।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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