अर्जुन और अश्वत्थामा का युद्ध

महाभारत शल्य पर्व के अंतर्गत चौदहवें अध्याय में संजय ने अर्जुन और अश्वत्थामा के युद्ध का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]

अर्जुन का पराक्रम

संजय कहते हैं- महाराज! दूसरी ओर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तथा उसके पीछे चलने वाले त्रिगर्तदेशीय शूरवीर महारथियों ने अर्जुन को लोहे के बने हुए बहुत से बाणों द्वारा घायल कर दिया। तब अर्जुन ने समरभूमि में तीन बाणों से अश्वत्थामा को और दो-दो बाणों से अन्य महाधनुर्धरों को बींध डाला। महाराज! भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् अर्जुन ने पुनः उन सब को अपने बाणों की वर्षा से आच्छादित कर दिया। अर्जुन के पैंने बाणों की मार खाकर उन बाणों से कण्टकयुक्त होकर भी आपके अर्जुन को छोड़ न सके। समरांगण में द्रोणपुत्र को आगे करके कौरव महारथी अर्जुन को रथसमूह से घेरकर उनके साथ युद्ध करने लगे। राजन! उनके चलाये हुए सुवर्णभूषित बाणों से अर्जुन के रथ की बैठक को अनायास ही भर दिया। सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ तथा महाधनुर्धर श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्पूर्ण अंगों को बाणों से व्यथित हुआ देख रणदुर्भद कौरव योद्धा बड़े प्रसन्न हुए। प्रभो! अर्जुन के रथ के पहिये, कूबर, ईषादण्ड, लगाम यो जोते, जूआ और अनुकर्ष- ये सब-के-सब उस समय बाणभय हो रहे थे। राजन! वहाँ आपके योद्धाओं ने अर्जुन की जैसी अवस्था कर दी थी, वैसी पहले कभी न तो देखी गयी और न सुनी ही गयी थी। विचित्र पंखवाले पैंने बाणों द्वारा सब ओर से व्याप्त हुआ अर्जुन का रथ भूतल पर सैकड़ों मसालों से प्रकाशित होने वाले विमान के समान शोभा पाता था।

अर्जुन की अद्भुत शोभा

महाराज! तदनन्तर अर्जुन ने झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा आपकी उस सेना को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे मेघ पानी वर्षा से पर्वत को आच्छादित कर देता है। समरभूमि में अर्जुन के नाम से अंकित बाणों की चोट खाते हुए कौरव सैनिक उन्हें उसी रूप में देखते हुए सब कुछ अर्जुनमय ही मानने लगे। अर्जुनरूपी महान अग्नि क्रोध से प्रज्वलित हुई बाणमयी ज्वालाएं फैलाकर धनुष की टंकार रूपी वायु से प्रेरित आपके सैन्यरूपी ईधन को शीघ्रतापूर्वक जलाना आरम्भ किया। भारत! महाभाग! अर्जुन के रथ के भागों में धरती पर गिरते हुए रथ के पहियों, जूओं, तरकसों, पताकाओं, ध्वजों, रथों, हरसों, अनुकर्षो, त्रिवेणु नाम काष्ठों, धुरों, रस्सियों, चाबुकों, कुण्डल और पगड़ी धारण करने वाले मस्तकों, भुजाओं, कंधों, छत्रों, व्यजनों और मुकुटों के ढेर-के-ढेर दिखायी देने लगे। प्रजानाथ! कुपित हुए अर्जुन के रथ के मार्ग की भूमि पर मांस और रक्त की कीच जम जाने के कारण वहाँ चलना-फिरना असम्भव हो गया। भरतश्रेष्ठ! वह रणभूमि रुद्रदेव के क्रीड़ास्थल (श्मशान) की भाँति कायरों के मन में भय उत्पन्न करने वाली और शूरवीरों का हर्ष बढ़ाने वाली थी। शत्रुओं को संताप देनेवाले पार्थ समरांगण में आवरणसहित दो सहस्र रथों का संहार करके धूमरहित प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। राजन! जैसे चराचर जगत को दग्ध करके भगवान अग्नि देव धूमरहित देखे जाते हैं, उसी प्रकार कुन्तीकुमार अर्जुन भी देदीप्यमान हो रहे थे।

अर्जुन और अश्वत्‍थामा का युद्ध

संग्रामभूमि में पाण्डुपुत्र अर्जुन का वह पराक्रम देखकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने अत्यन्त ऊॅची पताका वाले रथ के द्वारा आकर उन्हें रोका। वे दोनों ही मनुष्यों में व्याघ्र के समान पराक्रमी थे और दोनों ही धनुर्धरों में श्रेष्ठ समझे जाते थे। उस समय परस्पर वध की इच्छा से दोनों ही एक दूसरे के साथ भिड़ गये। महाराज! भरतश्रेष्ठ! जैसे वर्षा ऋतु में दो मेघखण्ड पानी बरसा रहे हों, उसी प्रकार उन दोनों के बाणों की वहाँ अत्यन्त भयंकर वर्षा होने लगी। जैसे दो सांड परस्पर सींगों से प्रहार करते हैं, उसी प्रकार आपस में लाग-डाँट रखने वाले वे दोनों वीर झुकी हुई गांठ वाले बाणों द्वारा एक-दूसरे को क्षत-विक्षत करने लगे। महाराज! बहुत देर तक तो उन दोनों का युद्ध एक-सा चलता रहा। फिर उनमें वहाँ अस्त्र-शस्त्रों का घोर संघर्ष आरम्भ हो गया।[1] भरतनन्दन! तब अश्वत्थामा ने अत्यन्त तेज किये हुए सुवर्णमय पंख वाले बारह बाणों से अर्जुन को और दस सायकों से श्रीकृष्ण को भी घायल कर दिया। तदनन्तर उस महासमर में दो घड़ी तक गुरुपुत्र का आदर करके अर्जुन ने बड़े हर्ष और उत्साह के साथ गाण्डीव धनुष को खींचना आरम्भ किया।[2]

शत्रुओं को संताप देने वाले सव्यसाची ने अश्वत्थामा के घोडे़, सारथि एवं रथ को चौपट कर दिया। फिर वे हल्के हाथों से बाण चलाकर बारंबार उसे घायल करने लगे। जिसके घोडे़ मार डाले गये थे, उसी रथ पर खडे़ हुए द्रोणपुत्र ने पाण्डुकुमार अर्जुन पर लोहे का एक मूसल चलाया, जो परिघ के समान प्रतीत होता था। शत्रुओं का संहार करने वाले वीर अर्जुन ने सहसा अपनी ओर आते हुए उस सुवर्णपत्रविभूषित मूसल के सात टुकडे़ कर डाले। अपने मूसल को कटा हुआ देख अश्वत्थामा को बड़ा क्रोध हुआ और उसने पर्वत शिखरों के समान एक भयंकर परिघ हाथ में ले लिया। युद्ध विशारद द्रोणपुत्र ने वह परिघ अर्जुन पर दे मारा। क्रोध में भरे हुए यमराज के समान उस परिघ को देखकर पाण्डुपुत्र अर्जुन ने तुरन्त ही पांच उत्तम बाणों द्वारा उसे काट गिराया। भारत! उस महासमर में पार्थ के बाणों से कटकर वह परिघ राजाओं के हृदयों को विदीर्ण करता हुआ-सा पृथ्वी पर गिर पड़ा। तत्पश्चात् पाण्डुकुमार अर्जुन ने दूसरे भल्लों से द्रोणपुत्र को घायल कर दिया। महामनस्वी बलवान वीर अर्जुन के द्वारा अत्यन्त घायल होकर भी अश्वत्थामा अपने पुरुषार्थ का आश्रय ले तनिक भी कम्पित नहीं हुआ।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-23
  2. 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 14 श्लोक 27-48

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