मंकणक मुनि का चरित्र

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 38वें अध्याय में वैशम्पायन द्वारा मंकणक मुनि के चरित्र का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

मंकणक मुनि के चरित्र का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! कुमारावस्था से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तथा प्रतिदिन सरस्वती नदी में स्नान करने वाले मंकणक मुनि का महान लीलामय चरित्र सुनो। भरतनन्दन! महाराज! एक समय की बात है, कोई सुन्दर नेत्रों वाली अनिन्द्य सुन्दरी रमणी सरस्वती के जल में नंगी नहा रही थी। दैवयोग से मंकणक मुनि की दृष्टि उस पर पड़ गयी और उनका वीर्य स्खलित होकर जल में गिर पड़ा। महातपस्वी मुनि ने उस वीर्य को एक कलश में ले लिया। कलश में स्थित होने पर वह वीर्य सात भागों में विभक्त हो गया। उस कलश में सात ऋषि उत्पन्न हुए, जो मूलभूत मरुद्गण थे। उन के नाम इस प्रकार हैं- वायुवेग, वायुबल, वायुहा, वायुमण्डल, वायुज्वाल, वायुरेता और शक्तिशाली वायुचक्र। ये उन्चास मरुद्गणों के जन्मदाता ‘मरुत’ उत्पन्न हुए थे।[2] राजन! महर्षि मंकणक का यह तीनों लोकों में विख्यात अदभुत चरित्र जैसा सुना गया है, इसे तुम भी श्रवण करो। वह अत्यन्त आश्चर्यजनक है।

ब्रह्मा आदि देवताओं का महादेव से निवेदन करना

नरेश्वर! हमारे सुनने में आया है कि पहले कभी सिद्ध मंकणक मुनि का हाथ किसी कुश के अग्रभाग से छिद गया था, उससे रक्त के स्थान पर शाक का रस चूने लगा था। वह शाक का रस देखकर मुनि हर्ष के आवेश से मतवाले हो नृत्य करने लगे। वीर! उनके नृत्य में प्रवृत्त होते ही स्थावर और जंगम दोनों प्रकार के प्राणी उनके तेज से मोहित होकर नाचने लगे। राजन! नरेश्वर! तब ब्रह्मा आदि देवताओं तथा तपोधन महर्षियों ने ऋषि के विषय में महादेव जी से निवेदन किया-‘देव! आप ऐसा कोई उपाय करें, जिससे ये मुनि नृत्य न करें’।[1]

मंकणक मुनि और महादेव का संवाद

मुनि को हर्ष के आवेश से अत्यन्त मतवाला हुआ देख महादेव जी ने (ब्राह्मण का रूप धारण करके) देवताओं के हित के लिये उनसे इस प्रकार कहा- ‘धर्मज्ञ ब्राह्मण! आप किसलिये नृत्य कर रहे हैं ? मुने! आपके लिये अधिक हर्ष का कौन सा कारण उपस्थित हो गया है? द्विजश्रेष्ठ! आप तो तपस्वी हैं, सदा धर्म के मार्ग पर स्थित रहते हैं, फिर आप क्यों हर्ष से उन्मत्त हो रहे हैं?’ ऋषि ने कहा- ब्रह्मन! क्या आप नहीं देखते कि मेरे हाथ से शाक का रस चू रहा है। प्रभो! उसी को देखकर मैं महान हर्ष से नाचने लगा हूँ। यह सुनकर महादेव जी ठठाकर हंस पड़े और उन आसक्ति से मोहित हुए मुनि से बोले- ‘विप्रवर! मुझे तो यह देखकर विस्मय नहीं हो रहा है। मेरी ओर देखो’। राजेन्द्र! मुनिश्रेष्ठ मंकणक मुनि से ऐसा कहकर बुद्धिमान महादेव जी ने अपनी अंगुलि के अग्रभाग से अंगूठे में घाव कर दिया। उस घाव से बर्फ के समान सफेद भस्म झड़ने लगा। राजन! यह देखकर मुनि लजा गये और महादेव जी के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने महादेव जी को पहचान लिया और विस्मित होकर कहा- ‘भगवन! मैं रुद्रदेव के सिवा दूसरे किसी देवता को परम महान नहीं मानता।[3]

मंकणक मुनि द्वारा महादेव की स्तुति करना

आप ही देवताओं तथा असुरों सहित सम्पूर्ण जगत के आश्रयभूत त्रिशूलधारी महादेव हैं। ‘मनीषी पुरुष कहते हैं कि आपने ही इस सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि की है। प्रलय के समय यह सारा जगत आप में ही विलीन हो जाता है। इन्हीं ऋषियों की तपस्या से कल्पान्तर में दिति के गर्भ से उन्चास मरुद्रणों का आविर्भाव हुआ। ये ही दिति के उदर में एक गर्भ के रूप में प्रकट हुए, फिर इन्द्र के वज्र से कटकर उन्चास अमर शरीरों के रूप में उत्पन्न हुए- ऐसा समझना चाहिये। ‘सम्पूर्ण देवता भी आपको यथार्थ रूप से नहीं जान सकते, फिर मैं कैसे जान सकूंगा? संसार में जो-जो पदार्थ स्थित हैं, वे सब आप में देखे जाते हैं। ‘अनघ! ब्रह्मा आदि देवता आप वरदायक प्रभु की ही उपासना करते हैं। आप सर्वस्व रूप हैं। देवताओं के कर्ता और कारयिता भी आप ही हैं। आपके प्रसाद से ही सम्पूर्ण देवता यहाँ निर्भय हो आनन्द का अनुभव करते हैं।[3] ‘शंकर! आप सब के प्रभु हैं। अपने उत्कृष्ट ऐश्वर्य से आपकी अधिक शोभा हो रही है। ब्रह्मा और इन्द्र सम्पूर्ण लोकों को धारण करके आप में ही स्थित हैं। ‘महेश्वर! सम्पूर्ण जगत के मूल कारण आप ही हैं। इसका अन्त भी आप में ही होता है। सब की उत्पत्ति के हेतु भूत परमेश्वर! से सातों लोक आप से ही उत्पन्न होकर ब्रह्माण्ड में फैले हुए हैं। ‘सर्वभूतेश्वर! देवता सब प्रकार से आपकी ही पूजा अर्चना करते हैं। सम्पूर्ण विश्व तथा चराचर भूतों के उपादान कारण भी आप ही हैं। ‘आप ही अभ्युदय की इच्छा रखने वाले सत्कर्म परायण मनुष्यों को ध्यान योग से उनके कर्मो का विचार करके उत्तम पद स्वर्गलोक प्रदान करते हैं। ‘महादेव! महेश्वर! कमल नयन! आपका कृपा प्रसाद कभी व्यर्थ नहीं होता! आपकी दी हुई सामग्री से ही मैं कार्य कर पाता हूं, अतः सर्वदा सब ओर स्थित हुए सर्वव्यापी आप भगवान शंकर की मैं शरण में आता हूं’।[4]

इस प्रकार महादेव जी की स्तुति करके वे महर्षि नतमस्तक हो गये और इस प्रकार बोले- ‘देव! मैंने जो यह अहंकार आदि प्रकट करने की चपलता की है, उसके लिये क्षमा मांगते हुए आप से प्रसन्न होने की मैं प्रार्थना करता हूँ। मेरी तपस्या नष्ट न हो’। यह सुनकर महादेव जी का मन प्रसन्न हो गया। वे उन महर्षि से पुनः बोले- ‘विप्रवर! मेरे प्रसाद से तुम्हारी तपस्या सहस्रगुनी बढ़ जाय। मैं इस आश्रम में सदा तुम्हारे साथ निवास करूंगा। जो इस सप्तसारस्वत तीर्थ में मेरी पूजा करेगा, उसके लिये इहलोक या परलोक में कुछ भी दुर्लभ न होगा। वे सारस्वत लोक में जायंगे- इसमें संशय नहीं है’। यह महातेजस्वी मंकणक मुनि का चरित्र बताया गया है। वे वायु के औरस पुत्र थे। वायु देवता ने सुकन्या के गर्भ से उन्हें उत्पन्न किया था।[4]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 38 श्लोक 22-42
  2. इन्हीं ऋषियों की तपस्या से कल्पांतर में दिति के गर्भ से उंचास मरुद्गणों का आविर्भाव हुआ। ये ही दिति के उदर में एक गर्भ के रूप में प्रकट हुए, फिर इंद्र के वज्र से कटकर उन्‌चास अमर शरीर के रूप में उत्पन्न हुए ऐसा समझना चाहिये।
  3. 3.0 3.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 38 श्लोक 43-53
  4. 4.0 4.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 38 श्लोक 54-59

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