सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग परज
धोखे-ही-धोखे (अज्ञान) में मैं ठगा गया। विषय-सुख से पर का होने के कारण विचार-शक्ति नहीं रही, श्रीहरि (भजन) रूपी हीरा मैंने घर में (संसार में आसक्त होकर) खो दिया। जैसे हिरन मरुभूमि में सूर्य की किरणों में (भ्रम से) प्रतीत होते पानी को देखकर चारों ओर दौड़ता है, परंतु प्यास नहीं निवृत्त होती (वैसे ही अज्ञानवश विषयों में सुख मानकर भटकता रहा, परंतु तृप्ति नहीं हुई)। अनेक जन्मों में बहुत-से कर्म किये और उन कर्मों (के बन्धन) में अपने-आप ही बँध गया। जैसे तोता (मीठे फल की आशा से) सेमर का सेवन करे, वैसे ही (सुख की आशा से सारहीन सांसारिक विषयों में) रात-दिन चित्त को लगाये रहा; लेकिन जब (तोते ने सेमर के) फल को चखा (उसमें चोंच मारी) तो प्रयत्न खाली गया, फल की रूई उड़ गयी, (तोते को मारे दुःख के) मूर्च्छा आ गयी। (इसी प्रकार जब पदार्थ मिले, तब उनके उपभोग में भी कोई सुख नहीं मिला। उनमें कोई सारतत्त्व नहीं था। उनकी मोहकता भी नष्ट हो गयी। निराशा और दुःख ही हाथ लगा।) जैसे बाजीगर बंदर को रस्सी से बाँधकर दाने-दाने के लिये चौराहों पर नचाया करता है (वैसे ही कामने भोगों की इच्छा से वासना की रस्सी में बाँधकर जीव को नाना योनियों में भटकाया है)। सूरदास जी कहते हैं कि भगवान् के भजन बिना मैंने स्वयं ही कालरूपी सर्प से अपने आपको दंशित कराया है (मृत्यु के मुख में जान-बूझकर पड़ा हूँ)। |
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