सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग
जिसने मनुष्य-जन्म पाकर कभी तुम्हारा नाम नहीं लिया, काम-क्रोध-मद-लोभ और मोह को छोड़कर जिसने और कहीं चितत नहीं लगाया; अकर्म (निषिद्ध कर्म), अविधि, अज्ञान, (बड़ों का) अपमान, कुमार्ग, रीतिविरुद्ध आचरण आदि जिन कामों का नाम लेने से ही पाप लगता है, वे ही अन्याय जो करता रहा; इन्द्रियों के सुख के वश होकर भटकता रहा और जो इन्द्रियों ने कहा, वही किया; नियम, धर्म, व्रज, जप, तप, संयम तथा साधु पुरुषों के संग को जिसने पहिचाना ही नहीं; देखने में मलिन, दीन, अत्यन्त दुर्बल लोगों को भी मैंने दुःख दिया। सूरदासजी कहते हैं कि मैं सभी अधम लोगों में भी अधिक अभिमानी होकर भी अपने को श्रीहरि का भक्त कहता हूँ। हे प्रभो! आपने गजराज और गणिका का उद्धार कर दिया तो क्या हुआ? जब तक ऐसे (मेरे समान) जिनका उद्धार न कर लो, तब तक हे स्वामी! आप अपने दीन-दयाल, पतित-पावन आदि सुयश का ख्यापन कैसे करते हो? (मेरा उद्धार किये बिना तो आपका सुयश सच्चा है नहीं)। |
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