सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
(242) आपके (आश्रय) बिना भूला हुआ ही भटकता रहा, लालच के कारण करोड़ों देवताओं के दरवाजे खोलता घूमता रहा (अनेकों देवताओं से याचना करता रहा)। जब तक उन (देवताओं) को अपना सर्वस्व दिया जाय, तभी तक वे प्रेम करते हैं; देवताओं की यही रीति है कि (आराधना का) फल माँगतो ही अस्वीकार करके फिर जाते (उदासीन या विरोधी हो जाते) हैं। किन्हीं-किन्हीं की पशु-बलि दे कर (जीव-हत्या का पाप करके भी) पूजा की; किंतु ऐसी पूजा करने पर भी वे तनिक भी संतुष्ट नहीं हुए, तब यह पहचान कर कि सब नख-शिख से (पूर्णतया) झूठे (सामर्थ्यहीन) हैं, सबका त्याग कर दिया। इस माया (लोभ) के कारण स्वर्ण-मपि (पारस) को छोड़ कर मैं काँच को समेटता रहा (आपका भजन त्याग कर अन्य देवताओं की उपासना में लगा रहा); जो (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) चारों पदार्थों को देने वाले थे, उन (आप) को तो मैंने त्याग ही दिया। हे केशव! आप कृतज्ञ हैं, करुणामय हैं, समस्त लोकों के स्वामी हैं। सूरदास जी कहते हैं- हमने अब आपके ये श्री चरण दृढ़ता से पकड़ लिये हैं (आपके चरणों का ही आश्रय ले लिया है), अब ये चरण ही हमारी सहायता करने वाले हैं। |
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