सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिहागरौ
माधव जी! मेरे मन को माया ने (अपने) वश में कर लिया है। जैसे फतिंगा (बिना सोचे दीपक पर कूदकर) शरीर दे देता है (भस्म हो जाता है, वैसे ही माया से मोहित मेरा मन भी) अपनी लाभ-हानि कुछ नहीं समझता। घर दीपक के समान है, (उसमें) धन तेल के समान, स्त्री रूई के समान और पुत्र अत्यन्त प्रबल ज्वाला (लौ) के समान है। मैं बुद्धिहीन इस भेद को नहीं समझ सका, प्रबल वेग से दौड़कर उसमें पड़ गया (आसक्त हो गया)। नलिनी-यन्त्र[1] में फँसे तोते के समान मैं विवश हो गया। बिना रस्सी के (कोई गुन न होने पर भी) मुझे (गृह की आसक्ति ने) फँसा लिया। मैं अज्ञानी हूँ, कुछ भी (हानि-लाभ) मेरी समझ में नहीं आया, उस बन्धन (आसक्ति) में पड़कर बहुत अधिक दुःख मैंने पाये। मैं बुद्धिहीन इस संसार में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) बहुत दिनों तक भटकता फिरा। सूरदास जी कहते हैं- जो श्यामसुन्दर की सेवा (भजन) करता है, उसकी दीनदशा कैसे हो सकती है? (दीनदशा तो भगवान् से विमुख होने पर ही होती है।) |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पद | पृष्ठ संख्या |
- ↑ तोते को पकड़ने के लिये दो लकड़ियों के बने एक यन्त्र को नलिनी कहते हैं। इसमें कोई फल लगा देते हैं। फल के लोभ से जब तोता लकड़ी पर बैठता है तो उसके भार से लकड़ी नीचे घूम जाती है। गिरने के भय से तोता लकड़ी को पंजों से पकड़े नीचे लटकता चिल्लाला रहता है। उसे उड़ना भूल ही जाता है। इस प्रकार वह पकड़ में आ जाता है।