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माधौ जू, मन सबही बिधि पोच।
अति उनमत्त, निरंकुस, मैगल, चिंता-रहित, असोच।
महा मूढ़ अज्ञान-तिमिर-महँ मगन होत सुख मानि।
तेली के वृष लौं नित भरमत, भजत, न सारंगपानि।
गीध्यौ दुष्ट हेम तस्कर ज्यौं, अति आतुर मति-मंद।
लुबध्यौ स्वाद मनी-आमिष ज्यौं अवलोक्यौ नहिं फंद।
ज्वाला-प्रीति प्रगट सन्मुख हठि, ज्यौं पतंग तन जार्यौ।
विषय-असक्त, अमित अघ-ब्याकुल, तबहूँ कछू न संभार्यौ।
ज्यौं कपि सीत-हतन-हित गुंजा सिमिटि होत लौलीन।
त्यौं सठ बृथा तजत नहिं कवहूं, रहत विषय-आधीन।
सेमर-फूल सुरंग अति निरखत, मुदित होत खग-भूप।
परसत चोंच तूल उघरत मुख, परत दु:ख कैं कूप।
जहाँ गयौ तहं भलौ न भावत, सब कोऊ सकुचानौ।
ज्ञान और बैराग भक्ति, प्रभु, इनमैं कहूँ न सानौ।
और कहां लौं कहौं एक मुख, या मन के कृत काज।
सूर पतित तुम पतित उधारन, गहौ विरद की लाज ।।161।।
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