सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग देवंगधार
(262) यदि यही (उपेक्षा करने का ही) निश्चय कर लिया था तो फिर कलियुग के पापों को लूटने (एकत्र करने) को मेरे शरीर का निर्माण ही (आपने) क्यों किया? यदि संसार में अपने (पतित-पावन) नाम का अनुसरण (वैसा व्यवहार) नहीं करना था तो आपने संसार में अपने (पतित-पावन) सुयश को विख्यात ही क्यों किया? और (मुझे) काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह के हाथ में बाँध कर क्यों सौंप दिया? मन से आपका चिन्तन और मानसिक सेवा (पूजन)- इन दोनों को ही मैं अगाध (अत्यन्त कठिन) समझता हूँ। हे कृपा निधान केशव! कृपालु होइये (कृपा कीजिये)! मेरे बहुत अपराधों (पापों) को मानिये मत (उनकी ओर ध्यान मत दीजिये)! सूरदास जी कहते हैं- हे स्वामी! ये गृह, स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति आदि हैं किसकी (ये किसी की अपनी नहीं हुई), जिनसे प्रेम किया जाय। (इनमें आसक्त होकर तो) यमराज को अपने कर्मों का विवरण देते हुए सदा ही संकट भोगना पड़ता है। |
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