सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
प्रियतम (प्रभु) को मन में जान लो (भली प्रकार समझो कि एकमात्र प्रभु ही प्रियतम हैं)। सारा संसार अपने सुख के लिये बँधा (सम्बन्ध रखने वाला) है, यहाँ कोई किसी का (सच्चा हितैषी) नहीं है। सुख के समय सब लोग आकर मिलकर (एकत्र) बैठते हैं, चारों ओर से घेरे रहते हैं (सम्बन्ध रखते एवं साथ लगे रहते हैं), किंतु विपत्ति पड़ने पर जब साथ छोड़ देते हैं, कोई पास भी नहीं आता। घर की स्त्री (अपनी निज की पत्नी) जिससे कि बड़ा प्रेेम होता है, (और) जो सदा साथ लगी रहती है, वह भी जिस क्षण जीव शरीर को छोड़ देता है, उसी क्षण (भय से) ‘भूत! भूत!’ कहकर दूर भाग जाती है (प्राणहीन देह के पास वह भी नहीं बैठ पाती)। यह संसार इस प्रकार का व्यापार (स्वार्थ का धंधा) ही बना है, उससे (तूने) स्नेह का नाता जोड़ लिया। सूरदास जी कहते हैं- (संसार के मोह में फँसकर) भगवान् का भजन किये बिना जीवन व्यर्थ खो दिया। |
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