सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग परज
जिस प्रभु ने (सत्त्व, रज, तमरूप) गुण और पंचतत्त्व का विधान (सृष्टि-रचना) करके तुझे जड़ से चेतन बनाया। पैर, बाल, हाथ, नख, नाक, नेत्र, कान आदि अंग दिये; समय-समय पर लाकर बहुत प्रकार के भोजन-वस्त्र दिये; (तेरी) नवीन-नवीन रुचियाँ पहचान कर (उनके अनुसार) माता, पिता, भाई मिलाये; (जिसकी कृपा से) स्वजन, कुटुम्बी, सेवक आदि बढ़े; पुत्र, स्त्री, सम्पत्ति, भवन आदि प्राप्त हुआ; (उसे भूलकर) अरे महामूर्ख! तू विषयासक्त बन गया; तेरे मन को काम ने आकर्षित कर लिया। खाने-पीने पहनने में ही युवावस्था बीत गयी। जैसे दुराचारी पुरुष के साथ रात्रि में रहे और सबेरा हो जाने पर उसे भय लगे (वैसे ही मायारूपी परस्त्री में अनुरक्त होकर जीवनरूपी रात्रि तूने व्यतीत कर दी और मृत्यु का महाभयदायक सबेरा पास आ गया)। जैसे-जैसे सुखपूर्वक शरीर पुष्ट होता गया, वैसे-ही-वैसे शरीर में काम (सांसारिक इच्छाएँ) भी बढ़ता गया, अज्ञानरूपी धुआँ बढ़ता गया, विचाररूपी दृष्टि-शक्ति नष्ट हो गयी तुझे सदा सार रहने वाला तेरा मित्र (सच्चे हितैषी प्रभु) दीख नहीं पड़ा। यमराज ने (तेरा कुकर्म) जान लिया, सारे संसार ने उसे सुना, इससे तेरा अपार अयश फैला और (मृत्यु के समय) जब यमदूतों ने मारना प्रारम्भ किया, तब किसी ने (किसी पुण्यकर्म ने) बीच-बचाव (रक्षा) नहीं की। अरे कुबुद्धि! पता नहीं, कितनी बार तू इस प्रकार बुरी मृत्यु से मरा है! (फिर भी अरे) नीच! (तू) श्रीहरि के प्रेम का विस्मरण करके सुख चाहता है? सूरदास जी कहते हैं- अरे शठ, मूर्ख (मन)! यदि तेरे हृदय में लज्जा नहीं है तो सौ बार क्या कहूँ, (तूने) एक भी प्रकार से (तनिक भी) श्रीहरि का भजन नहीं किया। |
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