विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 32गोपी में दास्य का हेतु-1वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्री.....च भवाम् दास्यः
(1) ऐसा है कि भगवान को जो नमस्कार करे, उसको देने के लिए भगवान अपनी मुट्ठी में हर समय मुक्ति लिए रहते हैं।– ‘हस्तन्यस्तनतापवर्ग’। इसी को गोस्वामी जी ने लिखा- ‘सकृत प्रणाम कियें ते’ ‘सकृत प्रणाम किए अपनाये’- एक बार जिस किसी ने शिर झुकाया और प्रणाम किया, और बस भगवान ने अपना लिया कि यह तो हमारा है। प्रेमी का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जरा मीठी नजर से उसकी ओर देखो तो वह समझेगा कि यह हमारा हो गया। ‘हस्तन्यस्तनतापवर्ग-मखिलोदारं’ अरे, अपने-आपको ही लुटाने के लिए उदार लोग, अपना दिल ही अपनी मुट्ठी में लिए-लिए फिरते हैं कि लो भक्तो, लो भक्तो, हमारा स्वरूप लो। वे उदारूचूड़ामणि हैं और अकारणकरुण हैं। जीव का प्रतिपादन तीन विभाग में किया गया है, न्याय, वैशेषिक और पूर्वमीमांसा। ये कर्ता-कर्म के रूप में परमात्मा का प्रतिपादन करते हैं। न्यायदर्शन कहता है कि जगत का मुख्यकर्ता है ईश्वर और जगत् ईश्वर का कर्म है। इस प्रकार कर्ता और कर्म के रूप में तत्पदार्थ का प्रतिपादन होता है। पूर्वमीमांसा का कहना है कि जीवात्मा कर्ता है और कर्म धर्माधर्म का भागीदार है; इनके यहाँ त्वम्-पदार्थ के रूप में कर्ता-कर्म का निरूपण है। पूर्वमीमांसा में त्वं-पदार्थ और न्याय में तत्पदार्थ के रूप में कर्ता और कर्म का निरूपण किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 10.29.39
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