विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का उदयसंसार की वासना गड्ढे की ओर ले जाती है, और भगवत् प्राप्ति की वासना संसार से ऊपर उठाती है। तो गोपियाँ कहती हैं कि हमारे मन में तो काम की आग जल रही है, इससे हमारा रोम-रोम तप्त हो रहा है। कृष्ण ने पूछा- यह तुम्हारी आग कैसे बुझेगी? बोलीं- ‘पुरुषभूषण देहि दास्यम्’ तुम बड़े उदार हो, अपनी सेवा दो, तब यह आग बुझेगी। हमारी आग कुछ खाने से, कुछ पीने से, कुछ मिलने से, कुछ भोगने से नहीं मिटने वाली है; जब हमें ईश्वर की सेवा मिलेगी, श्रीकृष्ण की सेवा मिलेगी, अपने परम प्रियतम सेवा मिलेगी, तब यह आग बुझेगी। तो श्यामसुन्दर। हम चाहती हैं, तुम्हारी सेवा। तो कृष्ण ने कहा- गोपियो, सेवा देने से नहीं मिलती, हम देंगे तब तुम सेवा लोगी, तो अभी इंतजार करो, प्रतीक्षा करो। जब समय आवेगा तब हम सेवा दे देंगे। अरे, माँगने से कहीं दास्य मिलता है? माँगने से कहीं सेवा मिलती है? जिसको सेवा करनी होती है वह तो करता ही है, वह सेवा किये बिना मर जायेगा। गोपी कहती हैं- नहीं-नहीं, तुम्हारे देने की जरूरत नहीं है, हम तो तुम्हारी दासी हैं और तुम्हारी सेवा करेंगी। इसमें तुम्हारी स्वीकृति सापेक्ष सेवा हमको नहीं चाहिए तुम मानो चाहो मत मानो, स्वीकार करो चाहे न करो, हमको अपनी दासी मानो चाहे मत मानो, लेकिन हम तो तुम्हारी सेवा करेंगी ही। एक जन्म करेंगी, जन्म-जन्म करेंगी। हम तो तुम्हारी दासी हैं ही, हमको दासी बनाओ मत। हमसे सेवा लो- ऐसा नहीं, हम तो तुम्हारी दासी हैं और सेवा करेंगी। इसको तुम भी नहीं रोक सकते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रवचन संख्या | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज