विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का हेतु-1भक्ति-दर्शनवाले ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि ईश्वर सर्वज्ञ है, और ‘सर्व’ ईश्वर का ज्ञेय है; ईश्वर जीव और जगत् के कण-कण की जानता है, क्षण-क्षण की जानता है, मन-मन की जानता है, इसलिए उसकी शरण हो जाओ। यह द्रष्टा और तत्पदार्थ के रूप में सर्वज्ञ ईश्वर का वर्णन करता है। द्रष्टा दृश्य के रूप में त्वं-पदार्थ का निरूपण करता है सांख्य। भक्ति में ऐसा है कि विषय विषयी विभाग करके वही आनन्दघन प्रभु भोक्ता है, और सब उसका ही भोग्य है। भक्ति में भी, जो तदीयता है कि हम उसके हैं, उसको मदीयता बनाने के लिए कि भगवान हमारे हैं, वह वृन्दावन की भक्ति है, श्रीकृष्ण की मधुररस की लीलाओं का वर्णन है। इसलिए भोक्ता भोग्य के रूप में तत्पदार्थ का वर्णन करना वृन्दावन के रसिकों का काम है। त्वम् पदार्थ का भोक्ता भोग्य के रूप में वर्णन प्रत्यभिज्ञावादी काश्मीरी शैव करते हैं। विशिष्ट और सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् के रूप में परमेश्वर का निरूपण शरणागतिवादी विशिष्टाद्वैतवादी, श्रीरामानुजाचार्य और द्वैतवादी श्रीमध्वाचार्य करते हैं। इस प्रकार द्रष्टा-दृश्य के रूप में त्वं-पदार्थ आत्मा का निरूपण, सांख्यवादी और योगवादी करते हैं; जगत् का कर्ता ईश्वर और जगत् उसका कर्म यह निरूपण न्याय करता है और आत्मा कर्ता है और उसके धर्माधर्म के उपभोग के लिए जगत् है, ऐसा निरूपण पूर्वमीमांसा करता है। ऐसे यह विभाग होता है। यह जो अद्वैत वेदान्ती हैं, ये इनमें से किसी के अंतर्गत नहीं है। उनका मार्ग निराला ही है। विडम्बना यह है कि यद्यपि अद्वैत के आधार पर ही सब टिके हैं और उसी का खण्डन करने के लिए अन्य सब दर्शन जोर लगाते हैं। अच्छा, तो आओ, अब यह हमारा वृन्दावनी जो ईश्वर है यह हमारा प्राइवेट है यह सार्वजनिक ईश्वर नहीं है; यह कभी ज्ञान-विज्ञान की कसौटी पर चढ़ाया जानेवाला नहीं है। यह तो साँवरा-सलोना, व्रजराजकुमार के रूप में व्यक्ति-प्राय है, व्यक्ति नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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