गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 19.त्रिगुण,मन और कर्म
परंतु हमारी प्रकृति में जिस गुण की प्रधानता होती है उसके अनुसार सुख या भोग-विलास भी अनेक प्रकार का होता है। इस प्रकार तामसिक मन अपनी अलसता और जड़ता में, तंद्रा एवं निद्रा में और अंधता एवं भ्रांति में सुसंतुष्ट रह सकता है। प्रकृति ने इसे मूढता और अज्ञता में गुहा के क्षीण आलोक, जड़ संतोष क्षुद्र या निकृष्ट हर्षों एवं स्थूल सुखों में ही संतृप्त रहने का विशेष सौभाग्य प्रदान किया है। इस सुख-संतोष के आरंभ में भी मोह है और परिणाम में भी, पर फिर भी गुहा के निवासी को अपनी मोह-भ्रांतियों में एक तामसिक सुख प्राप्त रहता है जो किसी भी प्रकार सराहनीय न होता हुआ भी उसके लिये यथेष्ट होता है। तमस और अज्ञान पर आधारित एक तामसिक सुख का भी अस्तित्व है। राजसिक मनुष्य का मन एक अधिक उग्र और मादक प्याले का रसास्वादन करता है; शरीर और इन्द्रियों का तथा इनिद्रयासक्त या प्रचंड-गतिमय संकल्प एवं बुद्धि का तीव्र चंचल एवं सक्रिय सुख ही उसके लिये जीवन का समस्त आनंद और जीवन धारण का वास्तविक अर्थ होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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