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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य
19.त्रिगुण,मन और कर्म
प्रथम स्पर्श में तो यह सुख अधरों के लिये सुधामय होता है, परंतु प्याले के तल में एक प्रच्छन्न विष रखा होता है और पीने के बाद इसका परिणाम होता है निराशा की कटुता, वितृष्णा, क्लांति, विद्रोह, विराग, पाप, यातना, हानि अनित्यता। और ऐसा होना अनिवार्य ही है क्योंकि इन सुखो के बाह्य रूप वे चीजें नहीं हैं जिन्हे हमारी अंतरस्थ आत्मा सचमुच में जीवन से प्राप्त करना चाहती है; बाह्म रूप नश्वरता के पीछे और परे भी कोई चीज है; कोई चिरस्थायी, संतोषप्रद और स्वतःपर्याप्त वस्तु भी है। अतएव सात्त्विक प्रकृति जिस चीज को प्राप्त करना चाहती है वह है उच्चतर मन तथा अंतरात्मा की परितृप्ति और जब वह एक बार अपनी खोज का यह बृहत् लक्ष्य प्राप्त कर लेती है तो अंतरात्मा का शुद्ध और निर्मल सुख,पूर्णता की एक अवस्था, स्थायी शांति और निर्वृति प्राप्त हो जाती है। यह अध्यात्म। सुख बाह्म वस्तुओं पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह निर्भर करता है केवल हमारे अपने ऊपर और साथ ही हमारे अंदर जो कुछ भी सर्वश्रेष्ठ तथा अंतरतम है उसके प्रस्फुटन के ऊपर। परंतु शुरू-शुरू में यह सुख हमारी सामान्य संपदा नहीं होता; इसे आत्म-साधन, आत्मिक पुरुषार्थ और उच्च एवं कठोर प्रयास के द्वारा अर्जित करना होता है।
आरंभ में इसका अर्थ होता है अभ्यस्त सुख की अत्यधिक हानि, बहुत अधिक कष्ट और संघर्ष हमारी प्रकृति के मंथन से, शक्तियों के दुःखदायी संघर्ष से उत्पत्र हलाहल, हमारे अंगो की दुष्प्रवृत्ति या प्राणिक चेष्टाओं के आग्रह के कारण परिवर्तन के प्रति अत्यधिक विद्रोह और दुष्प्रवृत्ति या प्राणिक चेष्टाओं के आग्रह के कारण परिवर्तन के प्रति अत्यधिक विद्रोह और विरोध, परंतु अंत में इस कटु गरल के स्थान पर अमृतत्त्व की सुधा समुद्भूत होती है और जैसे-जैसे हम उच्चतर आध्यात्मिक प्रकृति की ओर आरोहण करते जाते हैं वैसे-वैसे हमारे दुःख का अंत होता जाता है, शोक-संताप का अनायास ही लोप होता जाता है। यही वह निरतिशय सुख है जो सात्त्विक साधना की परिणति की चरम चूड़ा या सीमा पर हमारे ऊपर अवतरित होता है। सात्त्विक प्रकृति का आत्म-अतिक्रमण केवल तभी संपन्न होता है जब हम महान् पर अभी भी अपे़क्षाकृत हीन सात्त्विक सुख से परे, मानसिक ज्ञान औैर पुण्य एवं शांति से मिलने वाले सुखों से परे जाकर आत्मा की शाश्वत शांति और दिव्य एकत्व का आध्यात्मिक परमानंद प्राप्त कर लेते हैं। वह आध्यात्मिक सुख तब सात्त्विक सुख न रहकर परिपूर्ण आनंद हो जाता है। आनंद ही वह गुप्त तत्त्व है जिससे सब वस्तुएं उत्पत्र हुई हैं जिसके द्वारा सब वस्तुएं जीवित रहती हैं और जिसकी ओर वे अपनी आध्यात्मिक परिणति के समय उत्रीत हो सकती हैं। उस आंनद की उपलब्धि केवल तभी हो सकती है जब मुक्त व्यक्ति अहंकार और उसकी कामनाओं से मुक्त होकर, अंततोगत्वा अपने उच्चतम आत्मा से, सर्व भूतों से तथा परमेश्वर से एकीभूत होकर अध्यात्मसत्ता के पूर्णतम आनंद में निवास करता है।
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