श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
सतरहवाँ अध्याय
यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥27॥
यज्ञ, तप और दान में स्थिति ‘सत्’ इस नाम से कही जाती है और तदर्थ किये जाने वाले कर्म भी ‘सत्’ इस नाम से ही कहे जाते हैं।।27।।
अतो वैदिकानां त्रैवर्णिकानां यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः कल्याणतया सद् इति उच्यते। कर्म च तदर्थीयं त्रैवर्णिकार्थीयं यज्ञदानादिकं सद् इति एवं अभिधीयते।
इसीलिये वेदानुसार चलने वाले त्रैवर्णिकों की जो यज्ञ, दान और तप में स्थिति है वह कल्याण रूप होने से ‘सत्’ कहलाती है। तथा उन त्रैवर्णिकों के कल्याणार्थ किये जाने वाले यज्ञ, दान और तप आदि कर्म भी सत् है, यही कहा जाता है।
तस्माद् वेदा वैदिकानि कर्माणि ब्राह्मणशबदनिर्दिष्टाः त्रैवर्णिकाः च ‘ओं तत् सत्’ इति शब्दान्वयरूप लक्षणेन अवेदेभ्यः च अवैदिकेभ्यः च व्यावृत्ता वेदितव्याः।।27।।
अतएव यह जानना चाहिये कि वेद, वैदिक, कर्म और ब्राह्मण शब्द के वाच्य त्रैवर्णिक- इन सबके साथ ‘ॐ’ ‘तत्’ और ‘सत्’ शब्द का सम्बन्ध बतलाकार अवेद तथा अवैदिकों से इन्हें अलग कर दिया गया है।।27।।
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