श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 447

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
सतरहवाँ अध्याय


अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥28॥

अर्जुन! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ (दान), तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया होता है, वह ‘असत्’ ऐसा कहलाता है। वह (कर्म) न तो मरने पर (फल देता है) और न इस लोक में ही ।।28।।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः।।17।।

अश्रद्धया कृतं शास्त्रीयम् अपि होमादिकम् असत् इति उच्यते। कुतः? न च तत् प्रेत्य नो इह, न मोक्षाय न सांसारिकाय च फलाय इति।।28।।

अश्रद्धा से किये हुए शास्त्र विहित भी होम आदि कर्म ‘असत्’ कहलाते हैं। क्योंकि वे न यहाँ लाभदायक हैं और न मरने के बाद ही। अभिप्राय यह कि वे न तो मोक्ष के लिये उपयोगी होते हैं और न सांसारिक फल के लिये ही।।28।।

इति श्रीमद्भगवद्रामानुजाचार्यविरचिते श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये सत्पदशोऽध्यायः।।17।।

इस प्रकार श्रीमान् भगवान् रामानुजाचार्य द्वारा रचित श्रीमद्भगवद्गीता-भाष्य के हिन्दी भाषानुवाद का सतरहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।।17।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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