श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
सतरहवाँ अध्याय
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥28॥
अर्जुन! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ (दान), तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया होता है, वह ‘असत्’ ऐसा कहलाता है। वह (कर्म) न तो मरने पर (फल देता है) और न इस लोक में ही ।।28।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः।।17।।
अश्रद्धया कृतं शास्त्रीयम् अपि होमादिकम् असत् इति उच्यते। कुतः? न च तत् प्रेत्य नो इह, न मोक्षाय न सांसारिकाय च फलाय इति।।28।।
अश्रद्धा से किये हुए शास्त्र विहित भी होम आदि कर्म ‘असत्’ कहलाते हैं। क्योंकि वे न यहाँ लाभदायक हैं और न मरने के बाद ही। अभिप्राय यह कि वे न तो मोक्ष के लिये उपयोगी होते हैं और न सांसारिक फल के लिये ही।।28।।
इति श्रीमद्भगवद्रामानुजाचार्यविरचिते
श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये
सत्पदशोऽध्यायः।।17।।
इस प्रकार श्रीमान् भगवान् रामानुजाचार्य द्वारा रचित श्रीमद्भगवद्गीता-भाष्य के हिन्दी भाषानुवाद का सतरहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।।17।।
|