श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
सतरहवाँ अध्याय
अथ एतेषां ‘तत्’ इतिशब्दान्वयप्रकारम् आह-
अब इनके साथ ‘तत्’ शब्द के सम्बन्ध का प्रकार बतलाते हैं-
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतप:क्रिया: ।
दानक्रियाश्च विविधा: क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि: ॥25॥
मोक्ष चाहने वाले पुरुषों के द्वारा विविध भाँति की यज्ञ, तप और दान की क्रियाएँ फल की आकाङ्क्षा न रखकर की जाती हैं। वे ‘तत्’ शब्द से निर्देश करने योग्य हैं।।25।।
फलम् अनभिसन्धाय वेदाध्ययन यज्ञतपोदानक्रियाः मोक्षकाड्क्षिभिः त्रैवर्णिकैः याः क्रियन्ते, ताः ब्रह्मप्राप्ति साधनतया ब्रह्मवाचिना तत् इति शब्दनिर्देश्याः।
मोक्ष की कामना वाले त्रैवर्णिक पुरुषों के द्वारा जो फल की इच्छा का त्याग करके वेदाध्ययन तथा यज्ञ, तप और दानरूप क्रियाएँ की जाती हैं, वे ब्रह्म प्राप्ति के उपायरूप होने के कारण ब्रह्मवाची ‘तत्’ नाम से निदेर्श की जाने योग्य हैं।
‘सवः कः किं यत्तत्पदमनुत्तमम्’[1] इति तच्छब्दो हि ब्रह्मवाची प्रसिद्धः।
‘सतः कः किम् यत् तत्, अनुपत्तमं पदम्’ (ये सब भगवान् के नाम हैं)। इस प्रकार ‘तत्’ शब्द ब्रह्म का वाचक प्रसिद्ध है।
एवं वेदाध्ययनज्ञादीनां मोक्षसाधनभूतानां तच्छब्दनिर्देश्यतया तत् इति शब्दान्वय उक्तः। त्रैवर्णिकानाम् अपि तथाविधवेदाध्ययना द्यनुष्ठानाद् एव तच्छब्दान्वय उपपन्नः।।25।।
इस प्रकार मोक्ष के साधनरूप वेदाध्ययन और यज्ञादि तत् शब्द के वाच्य होने से उनके साथ तत् शब्द का सम्बन्ध बतलाया गया, तथा उस प्रकार के वेदाध्ययनादि का अनुष्ठान करने के कारण ही त्रैवर्णिकों के साथ भी तत् शब्द का सम्बन्ध सिद्ध हो गया।।25।।
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