श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 264

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय


अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥10॥

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥11॥

(वह रूप) अनेक मुख-नेत्रों वाला, अनेक अद्भुत दर्शन वाला, अनेक दिव्य भूषणों वाला और अनेक दिव्य शस्त्रों को उठाये हुए, दिव्य माला-वस्त्र धारण किये हुए, दिव्य गन्ध लेपन किये हुए सब प्रकार से आश्चर्यमय, प्रकाशमय, अनन्तरूप और सब ओर मुखवाला था।। 10-11।।

देवं द्योतमानम् अनन्तं कालत्रयवर्तिनिखिलजगदाश्रयतया देशकालपरिच्छेदानर्ह विश्वतोमुखं विश्वदिग्वर्तिमुखं स्वोचितादिव्याम्बरगन्धमाल्याभरणायुधान्वितम्।। 10-11।।

देव-प्रकाशमान, अनन्त-तीनों कालों में वर्तमान सम्पूर्ण जगत् का आधार होने से देश काल की सीमा में न आने योग्य विश्वतोमुख-सम्पूर्ण दिशाओं की ओर वर्तमान मुखवाला, स्वोचित (भगवान् के अनुरूप) दिव्य वस्त्र, गन्ध, माला, आभूषण और आयुधों से युक्त था।। 10-11।।

ताम् एव देवशब्दनिर्दिष्टां द्योत मानतां विशिनष्टि-

‘देव’ शब्द से बतलायी हुई उस प्रकाश मानता को ही विस्तार से कहते हैं-

दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भा: सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मन: ॥12॥

आकाश में यदि सहस्र सूर्यों की प्रभा एक साथ उदय हो जाय, तो वह उस महात्मा की प्रभा के सदृश शायद हो सकती है।। 12।।

तेजसः अपरिमितत्त्वदर्शनार्थम् इदम्। अक्षयतेजः स्वरूपम् इत्यर्थः।। 12।।

यह श्लोक भगवान् के तेज की अपरिमितता दिखलाने के लिये है। अभिप्राय यह है कि भगवान् का स्वरूप अक्षय तेज से युक्त है।। 12।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
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अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
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