श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 265

Prev.png

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥13॥

तब अर्जुन ने वहाँ देवदेव (श्रीकृष्ण)-के शरीर में एक देश में स्थित अनेक प्रकार से विभक्त हुए समस्त जगत् को देखा।। 13।।

तत्र अनन्तायामविस्तारे अनन्त बाहूदरवक्त्रनेत्रे अपरिमिततेजस्के अपरिमितदिव्यायुधोपेते स्वोचिता परिमितदिव्य भूषणे दिव्यमालयाम्बर धरे दिव्यगन्धानुलेपने अनन्ताश्चर्य मये देवदेवस्य दिव्ये शरीरे अनेकधा प्रविभक्तं ब्रह्मादिविधविचित्रदेव तिर्यड्मनुष्यस्थावरादिभोक्तृवर्ग पृथिव्यन्त रिक्षस्वर्गपातालातलवितलसुतलादि भोगस्थानभोग्यभोगोपकरणभेदभिन्नं प्रकृतिपुरुषात्मकं कृत्स्त्रं जगत् ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते।’ [1] ‘हन्त ते कथयिष्यामि विभूतीरात्मनः शुभाः।’[2] ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशय स्थितः।’[3] ‘अदित्या नामहं विष्णुः’[4] इत्यादिना ‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।’[5] ‘विष्टभ्याहमिदं कृत्स्त्रमेकांशेन स्थितो जगत्।।’[6] इत्यन्तेन उदितम्; एकस्थम् एकदेशस्थं पाण्डवः भगवत्प्रसादलब्धतद्दर्शनानुगुणदिव्य चक्षुः अपश्यत्।। 13।।

उस अनन्त लम्बाई और विस्तार वाले अनन्त बाहु, उदर, मुख और नेत्रों वाले अपार तेजपूर्ण अपरिमित दिव्य शस्त्रों से युक्त भगवान् के अपने ही योग्य अपरिमित दिव्य भूषणों से युक्त, दिव्य माला और वस्त्र धारण किये हुए दिव्य गन्ध के अनुलेपन से युक्त, अनन्त आश्चर्यमय देवदेव भगवान के दिव्य शरीर में अनेक प्रकार से विभक्त-ब्रह्मादि विविध विचित्र देवता, तिर्यक्, मनुष्य, स्थावरादि भोक्तवर्ग तथा पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, पाताल, अतल, वितल और सुतल आदि भोगस्थान एवं भोग्य-भोगसामग्रियों के भेद से विभिन्न प्रकृति और पुरुषरूप इस सारे जगत् को अर्जुन ने देखा। अर्थात् ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते।’ ‘हन्त ते कथयिष्यामि विभूतीरात्मनः शुभाः।’ ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशय- स्थितः’ ‘आदित्यानामहं विष्णुः’ यहाँ से लेकर ‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्’ ‘विष्ट भ्याहमिदं कृत्स्त्रमेकांशेन स्थितो जगत्’ तक जिसका वर्णन किया गया है, उस समस्त विश्व को पाण्डुपुत्र अर्जुन ने, जिसको भगवान की कृपा से उनके दिव्यरूप दर्शन के योग्य दिव्य चक्षु मिल चुके हैं, एकस्थ-(भगवान् के शरीर में) एक देश में स्थित देखा ।।13।।

तत: स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धञ्जय: ।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥14॥

तब वह विस्मय से पूर्ण और रोमांच से युक्त अर्जुन श्रीकृष्ण को सिर से प्रणाम करके हाथ जोडे़ हुए बोला-।। 14।।

ततः धनंजयः महाश्चर्यस्य कृत्स्नरस्य जगतः स्वदेहैकदेशेन आश्रयभूतं कृत्स्नस्य प्रवर्तयितारं च आश्चर्य तमानन्तज्ञानादिकल्याणगुणगणं देवं दृष्टृा विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा शिरसा दण्डवत् प्रणम्य कृतांजलिः अभाषत।। 14।।

फिर वह अर्जुन महान् आश्चर्यमय सम्पूर्ण जगत् का अपने शरीर के एक देश से ही आधार बने हुए तथा सबका प्रवर्तन करने वाले और अत्यन्त आश्चर्यपूर्ण अनन्त ज्ञानादि कल्याणमय गुणगणों से समन्वित परमदेव भगवान् को देखकर विस्मय से भर गया और रोमांच युक्त हुआ सिर से दण्डवत्-प्रणाम करके हाथ जोडे़ हुए बोला-।। 14।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10/8
  2. 10/19
  3. 10/20
  4. 10/21
  5. 10/39
  6. 10/42

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः