श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्मा परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥12॥
आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥13॥
अर्जुन बोले- आप परमब्रह्म, परमधाम और परमपवित्र हैं। सब ऋषि और देवर्षि नारद, असित, देवल, व्यास आपको शाश्वत दिव्य पुरुष, अजन्मा, व्यापक आदिदेव कहते हैं और आप स्वयं भी मुझे ऐसा ही कहते हैं।। 12-13।।
परं ब्रह्म परं धाम परमं पवित्रम् इति यं श्रुतयो वदन्ति स हि भवान्।
श्रुतियाँ जिसको परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र कहती हैं, वे आप ही हैं।
‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्मेति’ [1] ‘ब्रह्मविदाप्नोति’ [2] ‘स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’ [3] इति।
श्रुति इस प्रकार कहती है- ‘जिससे ये सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसमें जीवन धारण करते हैं और अन्त में मरकर जिसमें लय होते हैं, उसको जानने की इच्छा करो, वह ब्रह्म है।’ ‘ब्रह्मवेत्ता परम पुरुष को प्राप्त करता है।’ ‘वह जो उस परम ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है।’
तथा परं धाम; धामशब्दो ज्योतिर्वचनः, परं ज्योतिः ‘अथ यदतः परो दिव्यो ज्योतिर्दीप्यते’ [4] ‘तद् देवा ज्योतिषां ज्योतिः’ [5] इति।
वैसे ही श्रुतियाँ आपको ‘पमरधाम’ बतलाती हैं। ‘धाम’ शब्द ज्योति का वाचक है, सो आप परम ज्योति हैं ‘और जो इससे परे दिव्य ज्योति प्रकाशित है’ ‘परम ज्योति को प्राप्त होकर अपने रूप से सम्पन्न होता है’ ‘देवता लोग उसको ज्योतियों का भी ज्योति (मानते) हैं।’
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